प्राचीन समयों में परमपद सच्चिदानन्द परमात्मा की प्राप्ति हेतु दो ही मुख्य साधनाओं का प्रचलन रहा है। यह दो साधनायें हैं- बहुप्रचलित (1) सूर्य साधना, तथा (2) अग्नि साधना। सूर्य साधना ही ऋषि अनुमोदित ‘सन्‍ध्‍या’ है तथा अग्नि साधना को ही ‘यज्ञ’ अथवा ‘अग्निहोत्र’ का नाम दिया जाता रहा है। यद्यपि सन्‍ध्‍या और यज्ञ का प्रचलन अब भी है, किन्तु् जब तक अग्नि के साथ यज्ञकर्ता का सम्बन्ध‍ नहीं होता, तब तक अग्निहोत्र अथवा यज्ञक्रिया केवल शुष्क कर्मकाण्ड बनी रहकर निष्प्र्भावी ही रहती है। यदि अग्नि के सम्मुख बैठकर भी अग्निदेव के साथ आहुति डालने वालों का सम्बन्ध न हो और ऐसा करने पर भी वह ऋषियों के समान तेजस्वी और वेदज्ञ बनना चाहे तथा सोचे कि उसके तेज के सामने मृत्यु भी भयभीत हो, तो यह कैसे सम्भव हैॽ
पुरातन ऋषियों ने अग्निदेव के साथ सम्बन्ध  स्थापित करने के लिये पहले कुण्ड में अग्नि प्रचण्ड करके उस अग्नि के साथ नाता जोड़ा, जिससे उनका शरीरस्थ सुषुम्ना पथ अग्निमय हो उठा। तदनन्तर इस पथ पर अग्रसर होते हुये उन्होंने परमदेव परमात्मा की प्राप्ति की, क्योंकि सम्पूर्ण अग्नियों का भी अग्नि ही तो परमदेव है। अग्निदेव के साथ सम्बन्ध‍ जोड़ने की क्रिया का नाम है ‘अग्नि क्रिया योग’। पुरातन ऋषियों ने इसी अग्नि क्रिया योग के द्वारा अपने आप को अग्निमय बनाकर अग्निदेव के माध्यम से ब्रह्माण्ड व्यापिनी समस्त दैवी शक्तियों से सम्बन्ध स्थापित किया। अपरिमित शक्ति अर्जित करके प्रकृति को विश्व कल्याण कार्यों में प्रयुक्त करने की साधनायें कीं, पारलौकिक तथा लौकिक सब प्रकार की समृद्धता प्राप्त की। इसी अग्नि क्रिया योग की चर्चा इस पुस्तक में की गई है।

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