गुरु कृपा सिंचित आत्मीय बन्धुओं,
ओम नमो नारायणाय। आप सब प्यार व सहकार पूर्वक इस संसार का सेवाभाव से सेवन करते हुये और नामामृत का निशदिन पान करते हुये, हम सभी परम सुख परमात्मा के पथ पर आगे बढ़ते रहें।
एक प्रकाश उत्सव (दीपावली) अभी-अभी बीता है और दूसरा (क्रिसमय) अभी आने वाला है, लेकिन यह उत्सव तो प्रति वर्ष आते-जाते रहते हैं। जीवन का सच्चा प्रकाश तो आनन्द और शान्ति के उस उत्सव (समाधि) में प्राप्त होता है, जो कहीं बाहर नहीं बल्कि हमारे अन्दर ही घटित होता है। यह घटना जब एक बार घटती है तो ‘अभाव योग’ की प्राप्ति करवाती है और जब गुरु कृपा आश्रित गहन अभ्यास के द्वारा यह घटना हमारा सहज स्वभाव ही बन जाती है तो ‘महायोग’ में स्थिति होती है; तब हम स्वयं ही आनन्दमय प्रकाश रूप बन जाते हैं। यही जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है और मानव मात्र का परम लक्ष्य है।
आप सभी जानते ही हैं कि श्री महाराज जी (गुरुदेव महायोगी स्वामी बुद्धपुरी जी) के मन की सहज स्फुरणा द्वारा आज से लगभग साढ़े तीन वर्ष पूर्व मल्लके आश्रम में श्रीयन्त्र ध्यान मन्दिर ‘त्रिपुर शिवा पीठम्’ की नींव रखी गई थी। इस संकल्प में वस्तुत: उनकी असीम करुणा ही छिपी हुई थी क्योंकि वर्तमान समय में प्राय: समस्त प्राणी अनेकानेक दुखों से ग्रस्त हैं और श्रीयन्त्र की चमत्कारी साधना भव रोग के साथ-साथ हमारे सांसारिक (शरीर, मन, परिवार, व्यापार, समाज आदि से सम्बन्धित) रोगों को भी दूर करने में सहज समर्थ है। इसीलिये इस मन्दिर के निर्माण में अद्भुत तथा अद्वितीय शिल्प कला का प्रयोग तो हुआ ही किन्तु साथ ही इसके आधार से लेकर शिखर तक, बाह्य विस्तार से लेकर गर्भगृह तक में महाराजश्री ने गम्भीर साधकों के साथ स्वयं मिलकर श्रीविद्या के गहन साधना अनुष्ठानों द्वारा असीम ऊर्जा का संचार किया तथा शिव-शक्तिमय ब्रह्माण्डीय प्राणों को आकर्षित कर यहाँ प्रतिष्ठित किया। पूरे निर्माण काल के दौरान समय-समय पर घटने वाली अनेक विस्मयजनक घटनाओं से दिव्य गुरुकृपा का संकेत मिलता रहा।
सभी जानते हैं कि महाराज जी का स्वभाव एकान्तप्रिय है, इसी कारण कभी आश्रम का कोई प्रचार नहीं किया गया; बीस वर्षों में पास के गाँववालों को भी आश्रम के बारे में नहीं पता लगा। इसीलिये जब उन्होंने मन्दिर निर्माण का संकल्प किया तो सभी को आश्चर्य हुआ। निर्माण कार्य शुरू होने के बाद, उन्होंने स्वयं ही कहा कि पता नहीं यह संकल्प कहाँ से आ गया, हमारा तो कभी इस प्रकार का विचार ही नहीं हुआ। हमारे मन की बात होती तो यह काम शुरू ही नहीं करना था। खैर, प्रारम्भ में मन्दिर के अनेक डिजाईन बनवाये गये, दो वर्ष लग गये, आखिर एक डिजाईन सभी को पसन्द आ गया तो महाराज जी ने भी हाँ कर दी लेकिन अगले दिन ही आकर बोले कि रात संकल्प उठा है कि मन्दिर श्रीयन्त्र का ही होना चाहिये और वह भी पूरा शास्त्रों में वर्णित स्वरूप के अनुसार। सभी ने कहा कि यह तो बड़ा मुश्किल काम हैक्योंकि आज तक ऐसा कहीं नहीं बना लेकिन गुरुदेव बोले ‘लगे रहो’ और अन्तत: उनका संकल्प सिद्ध हुआ।
इस बीच एक रात जब गुरुदेव योगनिद्रा का अभ्यास कर रहे थे तो उन्हें अपनी छाती पर कुछ ठण्डक और भार का अनुभव हुआ, टटोल कर देखा तो एक नाग फन फैलाये उनकी छाती पर वार्तालाप की मुद्रा में बैठा हुआ था और हैरानी की बात रही कि वह उनके हाथ के स्पर्श से भी विचलित नहीं हुआ। सारी रात वह उनके कक्ष में ही रहा और सुबह जब हम लोगों ने जाकर देखा तो वह विशालकाय काला भुजंग बड़े आराम से उनके आसन पर ही विश्राम कर रहा था। शक्ति का वह दूत अवश्य कोई दैवी सन्देश लेकर आया था। इसके बाद गुरुदेव ने सहज स्फुरणा के आधार पर मन्दिर की वास्तु रचना में अनेक संशोधन करवाये, जिसके चलते आर्किटेक्चरल डिज़ाइन को 24 बार बदलना पड़ा। उन संशोधनों के परिणामस्वरूप अनजाने ही मन्दिर के भवन का आकार, जो पहले 100 फीट निर्धारित था, वह 64 फीट हो गया। इस दिव्य संयोग का स्वागत करते हुये नींव में 64 योगिनियों की संकल्पनापूर्वक, उनके यन्त्रों की स्थापना के साथ निर्माण कार्य का प्रारम्भ किया गया। इसके साथ-साथ समर्पित साधकों द्वारा साधनामय सूक्ष्म निर्माण कार्य भी गुरुदेव के दिशा निर्देश में चलता ही रहा। भूमिपूजन के साथ ही गुरुदेव ने भूगर्भ में एक विशाल यज्ञकुण्ड का निर्माण करवाया और वहाँ निरन्तर दो महीने तक अग्नि के सान्निध्य में गम्भीर साधनायें चलती रहीं। देश-विदेश से आये अनेक साधकों ने इस अनुष्ठान में भाग लिया और उन्हें नाना प्रकार के दिव्य अनुभव हुये।
प्रारम्भ में मन्दिर का आकार बाहर-भीतर से चौरस ही रखा गया था और मोटी दीवारों के बीच में गुफायें बनाने का विचार था, किन्तु महाराजजी कुछ समय के लिये इंग्लैण्ड गये तो पीछे से इंजीनियर ने दीवारें सामान्य मोटाई की बना दीं और उसके अनुसार ही खम्भे आदि भी खड़े कर दिये। महाराजजी के लौटने पर जब इस गड़बड़ का पता लगा तो उन्होंने अपने स्वभाव अनुसार बिना किसी पर कोई दोषारोपण किये और बिना कोई भी तोड़-फोड़ किये एक नया रास्ता निकाल दिया। परिणामस्वरूप गर्भगृह गोलाकार हो गया और उसकी भित्ति में गुफाओं की संख्या देवपीठों सहित 52 हो गयी। यह भी एक दिव्य संयोग बन गया और उनमें विश्व की समस्त 52 शक्तिपीठों की विधिपूर्वक संकल्पना की गई।
मन्दिर का गुम्बद भी एक अद्भुत कारीगरी है, लेकिन इसके लिये तो ईंजीनियर और बिल्डर भी बड़े परेशान थे क्योंकि महाराज जी का निर्देश था कि श्रीयन्त्र का आकार पूरा शास्त्रों के अनुसार ही होना चाहिये और वह किसी भी तरीके से सम्भव नहीं हो रहा था। उन्होंने अनेक विकल्प दिये, किन्तु महाराज जी मूल संरचना पर जोर देकर कहते रहे- ‘लगे रहो’। तब दैवीकृपा से ईंजीनियर अशोक अट्ठी जी के मित्र प्रो. काजमी, जो आई आई टी दिल्ली से विभागाध्यक्ष रिटायर हुये थे, उन्होंने पुरानी किताबों से खोजकर उल्टी कीप (reverse funnel) के आकार का यह नक्शा सुझाया और पूरी सहायता भी की। बिल्डर की सारी टीम ही चिन्ता में थी कि बिना किसी मध्य स्तम्भ के इतनी भारी छत, जिसके ऊपर ट्रकों पत्थर भी लगाया जाना है, यह सब कुछ टिकेगा कैसे लेकिन जिसके सिर ऊपर तू स्वामी…।
इसी प्रकार जब भवन का बाह्य भव्य रूप तैयार हो गया, तो लगा कि शिखर उसके अनुकूल नहीं है क्योंकि पत्थर लगने से मन्दिर का रूप तो अत्यन्त भव्य बन गया था अब उसके ऊपर स्टील का सीधा-सादा शिवलिंग पूरा उभर कर नहीं आ रहा था। एक समस्या यह भी थी कि महाराज जी का आदेश था कि सूर्य की किरणें शिखर से सीधी अन्दर जानी चाहियें ताकि वह नीचे रखे श्रीयन्त्र में प्रवेश करती रहें। इस कार्य में भी शिखर के उस स्वरूप में कुछ तकनीकी कठिनाईयां आ रही थी। एक बार फिर गुरु चरणों में निवेदन किया गया और जो समाधान वहाँ से प्राप्त हुआ, उसके परिणाम स्वरूप शिखर तो शोभावान बना ही, मन्दिर की ऊँचाई 87 से बढ़कर स्वयं ही शुभ संख्या 108 फीट की हो गयी। इस प्रकार की अनेक घटनायें दिव्य मार्गदर्शन का स्पष्ट संकेत देती रहीं, किन्तु एक घटना तो बिल्कुल ही विस्मित करने वाली हुई।
जब भवन बनकर तैयार हो गया और पत्थर भी लग गया, बस दरवाजों का कार्य चल रहा था और उद्घाटन में मात्र चार महीने ही रह गये थे तो एक अपरिचित भक्त ‘लाली’, नर्मदेश्वर शिव (नर्मदा नदी से निकला स्वनिर्मित शिवलिंग) की विशाल पिण्डी लेकर आश्रम पहुँच गये और उसकी स्थापना श्रीयन्त्र मन्दिर में करने का हठ करने लगे। सभी ने कहा कि अब तो मन्दिर बन चुका है, अब कहीं कोई सम्भावना ही नहीं है शिवलिंग की स्थापना की क्योंकि पहले से इसका कोई प्रावधान ही नहीं रखा गया लेकिन वह नहीं माने। आखिर गुरुचरणों में यह समस्या रखी गयी तो गुरुदेव प्रसन्न होते हुये बोले,‘‘जब शक्ति जागृत हो तो शिव को आना ही पड़ता है। स्वयम्भू नर्मदेश्वर के आगमन से सिद्ध होता है कि यह शक्तिपीठ पूर्ण जागृत हो चुकी है। अब शिव-शक्ति के मिलन से यह मन्दिर पूर्णता को प्राप्त होगा और सभी भक्तों को इस लोक एवं परलोक, दोनों जगह पूर्ण आनन्द देने वाला बनेगा। नर्मदेश्वर की स्थापना की तैयारी करो।’’ मन्दिर का केन्द्र ‘बिन्दु’ हैं शक्तिरूपा श्रीयन्त्र तो उनके साथ विराजित शिव-रूप का नाम श्रीगुरुकृपा ने उन भक्तों द्वारा ही ‘नादेश्वर’ रखवाया। शास्त्रों के अनुसार स्फटिक श्रीयन्त्र तथा नर्मदेश्वर शिवलिंग (तथा शालिग्राम भी) स्वयं जागृत होते हैं और उन्हें प्राण-प्रतिष्ठा की भी आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह भूमि ही ऐसी ऊर्जावान् तथा दिव्य है, जो शिवलिंग एवं शालिग्राम का निर्माण कर देती है, यद्यपि इसमें हजारों वर्ष लगते हैं। ऐसा सुन्दर संयोग सिद्ध गुरु कृपा से ही तो बन सकता है।
सोच कर देखें, इस अभूतपूर्व-अद्वितीय तथा भव्य ध्यान मन्दिर के साथ-साथ एक अतिशोभनीय अग्नि मन्दिर, 100×200 फीट का सभा हाल, सर्व सुविधा सम्पन्न 20 कमरों का एक नया आवासीय भवन, पूरे आश्रम का नया रूप, यह सब मात्र 3 वर्षों में बन कर तैयार हो गया; जबकि आश्रम प्रारम्भ से ही स्वावलम्बी तथा मितव्ययी होने के कारण और महाराज जी के विरक्त स्वभाव के कारण दान-चढ़ावे का भी कोई विशेष चलन नहीं था और न ही कोई सम्पत्ति या पूंजी थी, जिसके आधार पर इतना बड़ा कार्य किया जाता। अगर कुछ था तो बस एक दैवी संकल्प और गुरु कृपा, जो असम्भव को भी सम्भव बना देती है।
इस दिव्य कृपा की सबसे बड़ी झलक मिली मन्दिर के केन्द्र में पाँच फीट लम्बे-चौड़े-ऊँचे क्रिस्टल श्रीयन्त्र की स्थापना के समय, जिसके साक्षी एक-दो भक्त नहीं बल्कि ईंजीनियर तथा बिल्डर समेत पूरे नौ बुद्धिजीवी लोग थे। मन्दिर का निर्माण कार्य बिल्कुल पूरा हो चुका था जब क्रिस्टल का यह श्रीयन्त्र चीन से दस पर्तों में बनकर आया और उद्घाटन तथा चालीस दिन के प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी थी। मन्दिर के द्वार से प्रवेश करते ही महाराजजी के गुरु स्वामी दयालुपुरी जी तथा उनके गुरु स्वामी देवपुरी जी ‘कम्बलीवाले’ का आदमकद स्वरूप लगा हुआ था और उसके सम्मुख विराजमान थे नर्मदेश्वर महादेव। सभी को अच्छी तरह से ढक कर रखा गया था। महाराजजी की आज्ञा से वेदमन्त्रों की गूंज के बीच श्रीयन्त्र की स्थापना का कार्य चल रहा था। एक के ऊपर दूसरी पर्त बिठाते हुये जैसे ही अन्तिम महाबिन्दु को बिठाया, ठीक उसी पल एक जोर का खटका हुआ। सभी ने चौंक कर देखा तो परमगुरुओं के स्वरूपों का मुख अनावृत्त हो गया था। यह एक आश्चर्य था कि स्वरूपों के ऊपर तो बाकायदा मोटी थर्मल शीट चिपका कर लकड़ी की फट्टियों से मजबूती के साथ रोकी हुई थी और कोई तीन महीने से यह इस प्रकार ही विराजमान थे। उस समय भी 3-4 घण्टों से सभी वहाँ थे पर उस पल से पहले थोड़ी भी हलचल नहीं हुई थी। सभी इस घटना से स्तब्ध रहे गये। श्रीगुरुदेव ने भाव विह्वल होते हुये कहा,‘सिद्ध गुरुओं की दृष्टि पड़ गई, प्राण प्रतिष्ठा तो हो गयी।’
गुरु कृपा का एक और प्रमाण प्राप्त हुआ उद्घाटन के दिन 3 अक्टूबर को, जिसमें दुनिया भर से 20,000 से भी अधिक लोग सम्मिलित हुये। इस छोटे से शान्त आश्रम में सुबह 7 बजे से लेकर रात 9 बजे तक लोगों का तांता लगा रहा, लेकिन कोई भगदड़ नहीं; सब कुछ इतनी शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुआ कि सामान्य जनता ही नहीं, सभी गणमान्य व्यक्ति तथा सन्तों-महापुरुषों को भी यह कहना पड़ा कि हमने समागम तो बहुत बड़े-बड़े देखे हैं लेकिन यह तो एक चमत्कार ही है कि कहीं कोई प्रबन्धक नहीं दिख रहा फिर भी सारे प्रबन्ध इतनी अच्छी तरह से चल रहे हैं और इतनी भारी भीड़ है लेकिन फिर भी न तो कहीं गाडि़यों का जाम लगा, न ही कहीं लोगों में धक्का-मुक्की हुई, न किसी को भोजन-प्रसाद प्राप्त करने में कोई समस्या हुई। वस्तुत: यह गुरुकृपा ही थी, जो सभी भक्तों-सेवादारों के माध्यम से कार्य कर रही थी। धन्य है, ऐसे सद्गुरुदेव जो स्वयं तो भोले शंकर की तरह जंगल-पहाड़ों में या सर्पों के संग भी सहज रहते हैं पर भक्तों के लिये सुख का सारा साधन करते हैं; जो स्वयं तो सर्दी-गर्मी से निश्चिन्त रहते हैं किन्तु भक्तों की छोटी सी सुविधा का भी ध्यान रखते हैं; जो स्वयं तो भोजन-वस्त्र की आवश्यकता से भी मुक्त हैं किन्तु भक्तों के लिये भांति-भांति के पकवान उपलब्ध करवाते हैं। इतना ही नहीं, जो जहाँ है और जैसा भी है, चाहे वह कामी-क्रोधी-लोभी ही क्यों न हो, उसे भी उतने ही प्यार और ध्यान से परम सुख के पथ पर आगे बढ़ाते हैं।
उनकी दयालुता और दिव्यता का सबसे बड़ा प्रमाण मिला उद्घाटन के उपरान्त, जब श्रीगुरुदेव ने इस भव्य तथा दिव्य मन्दिर का लोकार्पण करने के साथ ही अपने मुख्य शिष्य द्वय (साध्वी योगांजलि चैतन्या पुरी तथा यह सेवक स्वामी सूर्येन्दु पुरी) को परम्परा अनुसार चादर ओढ़ाकर आश्रम व्यवस्था, साधना परम्परा एवं नामदीक्षा आदि के समस्त सेवाकार्य सौंप दिये तथा स्वयं महायोग के पथ पर और आगे निकल पड़े। (यहाँ यह स्पष्ट अवश्य कर दें कि महाराज जी ने कोई एकान्तवास या अज्ञातवास नहीं लिया है और न ही आश्रम-भक्तों आदि को छोड़ा है, बल्कि वह तो मानव मात्र के लिये और आगे का रास्ता खोल रहे हैं। यदि उन्हीं के शब्दों में कहें तो प्राईमरी से लेकर कॉलेज तक की सारी पढ़ाई की व्यवस्था कर ही दी गई है, कोर्स भी तैयार है और टीचर भी, जो चाहे आकर मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है। अब आवश्यकता है आगे के शोध कार्य की तथा जो गम्भीर जिज्ञासु इसी जन्म में परम सत्य को खोज निकालना चाहते हैं, उनके मार्गदर्शन की। आजकल अध्यात्म जगत में प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर (अभावयोग) के तो अनेक विद्यालय हैं और सर्वत्र उनका प्रचार भी है, किन्तु महायोग साधन पथ की ऊँचाईयों को छूने वाले विरले ही हैं। इसलिये वर्तमान में इस कार्य की महती आवश्यकता है। प्रत्येक युग में अनेक सिद्ध सन्त हुये जिन्होंने देशकाल की आवश्यकता अनुसार नाना साधनाओं का विकास किया, किन्तु कालान्तर में अधिकांश परम्परायें छिन्न-भिन्न हो गईं क्योंकि उनके उत्तराधिकारियों ने साधना एवं तप-त्याग के स्थान पर आश्रम व्यवस्थाओं और प्रचार को अधिक महत्व देना प्रारम्भ कर दिया। एक प्रकार से यह भी आवश्यक था क्योंकि इसके द्वारा जनसामान्य में परमार्थ पथ के प्रति जागृति उत्पन्न हुई किन्तु प्रगति के बिना जागृति का मोल नहीं रह जाता। समाज में अब पर्याप्त जागृति है, इसलिये वर्तमान में यह परमावश्यक है कि सामर्थ्यवान साधक तप-त्याग एवं परम करुणा-प्रेम से सुशोभित इस महायोग के पथ पर आगे बढ़ें और जनसामान्य की आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करें क्योंकि सामर्थ्य के साथ कर्तव्य भी तो जुड़ा ही होता है।)
यह तो हम सभी जानते हैं कि वह महानदियाँ, जिनमें जल भी पूरा हो और वेग भी, उनका पड़ाव तो अथाह सागर ही होता है; क्योंकि उनकी व्यापकता को किन्हीं सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। श्रीगुरुदेव भी साधना के जिस स्तर पर हैं, वहाँ उन्हें किसी शरीर, आश्रम या देशकाल की छोटी-छोटी सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। वह तो कभी भूमण्डल के सर्वोच्च शिखर हिमालय पर तो कभी विशाल समुद्र के तट पर साधन प्रवास करते हुये, मात्र इस धरा पर ही नहीं वरन् समस्त ब्रह्माण्ड में परमात्म चेतना का विस्तार करने के लिये संकल्पित हैं। वस्तुत: वह तो इस समस्त संसार का कलियुग से सतयुग में जाने का पथ प्रशस्त कर रहे हैं और धरती पर ही दिव्य भगवती चेतना के अवतरण का आधार बना रहे हैं। हम अपने शरीर तथा मन को समझे बिना तथा लक्ष्य को पहचाने बिना, अहं पूर्वक आसन-प्राणायाम, जप-ध्यान, ग्रन्थ अध्ययन, वेदान्त विचार, कीर्तन-भजन तथा पूजन-अर्चन आदि के प्रारम्भिक स्तर में ही आयु व्यतीत करते हुये रोग-शोक-मोह आदि से त्रस्त हुये मृत्यु समय मुक्ति की आशा करने की बजाये प्रभु से सीधा सम्बन्ध जोड़कर जीवन्मुक्ति की प्राप्ति किस प्रकार कर सकें, उसका साधन वह बना रहे हैं। इसके लिये सूर्य-क्रिया-योग, अग्नि-क्रिया-योग, संजीवनी-क्रिया-योग, मन्त्र एवं यन्त्र विज्ञान, जप साधना के विभिन्न स्तर, खेचरी विद्या, शाम्भवी विद्या, श्रीविद्या, क्रिया कुण्डलिनी, नादानुसन्धान आदि कितनी ही गुप्त-प्रकट साधनायें उन्होंने विकसित की हैं और उनके सिद्धान्तों को सरल रूप में सविस्तार प्रकाशित भी किया है।
वेदान्त, भक्ति, योग के सूत्रों तथा जपुजी साहिब और बाईबल की साधनापरक व्याख्याओं-टीकाओं तथा कुण्ड-अग्नि-शिखा के लेखों द्वारा उन्होंने न केवल सर्वसामान्य के लिये अध्यात्म पथ को सुलभ बना दिया है बल्कि प्रगति की कसौटियों को सुस्पष्ट करते हुये कहीं भी भटकने या अटकने की सम्भावना को भी समाप्त कर दिया है। साधन पथ को प्राथमिक से लेकर उच्चतम अनेक स्तरों में बांटकर और तदनुसार साधनाओं का विकास कर यात्रा को सरल, सुखमय तथा उत्साहवर्धक बना दिया है। इतना कुछ पाकर निश्चित ही अब हमारा भी समय है, इस पथ के अनथक अनुसन्धान का।
इसीलिये गुरु आज्ञा में समर्पित इस जीवन के नये अध्याय का प्रारम्भ चालिया (चालीस दिन का एकान्त साधना अनुष्ठान) के साथ करने की प्रेरणा उन्हीं की अहैतुकी कृपा से हुई है। महाराज जी हमेशा कहते हैं कि नित्य सुमिरन के बिना सेवा निस्वार्थ नहीं होती। पिछले तीन वर्षों से मन्दिर की सेवा में रत होने के कारण इस प्रकार का अनुष्ठान करने का समय नहीं निकाल सके किन्तु अब अवसर भी है और आवश्यकता भी। इसीलिये 26 अक्टूबर को मल्लके आश्रम में होने वाले मासिक सत्संग के उपरान्त ही एकान्त कुटिया में प्रवेश कर लिया। बाहर की सभी सेवाओं से अपने मन को निश्चिन्त करके ही अन्तर्यात्रा का प्रारम्भ होता है, इसलिये विचार हुआ कि एक बार सेवा से जुड़े सभी स्वजनों से बात तो कर ही ली जाये। पिछले कुछ समय से वेबसाईट, न्यूज़लेटर तथा ईमेल आदि का भी भली प्रकार से ध्यान नहीं रख पा रहे थे, किन्तु आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि नववर्ष से पूर्व ही गुरुकृपा से इन सभी सेवाओं को सुचारित कर लिया जायेगा। महाराजजी ने इतना कुछ लिखा हुआ है और वह सब इतना दुर्लभ तथा महत्वपूर्ण है कि उसे प्रकाशित होना ही चाहिये, इसलिये प्राथमिकता के आधार पर इस विषय में कार्य करने का संकल्प है। इस एकान्तवास के दौरान साध्वीजी आश्रम की सभी सेवायें (ईमेल आदि भी) देखेंगी और दिसम्बर में जब हमारा चालिया पूरा होगा तब वह चालीस दिन के एकान्त साधनावास में प्रवेश कर जायेंगी। इन्हीं दिनों में कुछ साधक एक-एक सप्ताह के लिये साथ की कुटिया में बैठते रहेंगे। इस प्रकार मिलजुल कर सेवा-साधना का यह कार्य चलता रहेगा। लेकिन यह सेवाकार्य मात्र आश्रमवासी दो-चार लोगों का नहीं है, आपका योगदान भी पूर्णतया अपेक्षित है। आप भी इस प्रगति पथ पर हमारे कन्धे से कन्धा मिला कर चल सकते हैं और इसके लिये हम आपका आवाहन करते हैं। आश्रम में अनेक अवसर उपलब्ध हैं, मिल कर सेवा तथा साधना करने के और साथ मिलकर कुछ नये अवसर आप और भी बना सकते हैं। कुछ सुझाव इस प्रकार हैं-
1) प्रत्येक माह के अन्तिम रविवार को मल्लके आश्रम में तथा संक्रान्ति के दिन किला रायपुर आश्रम में सत्संग एवं विचार चर्चा होती है, जिसमें आप अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करा सकते हैं और आगे का मार्गदर्शन भी प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा सम्भव हो तो एक-दो दिन पहले आकर आप सत्संग की तैयारियों तथा संगत की सेवा में भी हाथ बंटा सकते हैं।
2) ‘कुण्ड-अग्नि-शिखा’ एक ऐसी अध्यात्मिक पत्रिका है, जिसमें महायोग की गहराईयों को सिद्ध सन्तों के जीवनों तथा शास्त्रों की रहस्यमयी वाणी से निकालकर सरल भाषा तथा अनुभवात्मक साधना प्रयोग के रूप में श्रीगुरुदेव हमें देते आ रहे हैं। महाराज जी हमेशा कहते हैं कि जीवन में सबसे बड़ी सेवा तो अपने आपको पहचानना ही है। आप पत्रिका के सदस्य बनकर उनके साधना अनुसन्धान का लाभ उठाते हुये यह सेवा करें। साथ ही पत्रिका के नये सदस्य बनाकर उन्हें महायोग पथ पर चलाने की सेवा भी कर सकते हैं। एक समस्या जो प्राय: देखने में आती है कि पाठकों को अपनी सदस्यता का नवीनीकरण कराना ध्यान नहीं रहता और आश्रम की व्यस्तताओं के कारण नियमित सेवादारों से उन्हें सूचित करने के लिये फोन या पत्र व्यवहार करना सम्भव नहीं हो पाता, यह सेवा भी आप कर सकते हैं।
3) मल्लके आश्रम में नवनिर्मित श्रीयन्त्र ध्यान मन्दिर ‘त्रिपुर शिवा पीठम्’ में प्रतिदिन प्रात: ध्यान साधना तथा सुबह-शाम आरती एवं स्तोत्र पाठ आदि होता है। मौसम के अनुसार सूर्य क्रिया, संजीवनी क्रिया तथा अग्नि क्रिया भी होती हैं तथा नित्य दोपहर में सद्ग्रन्थ विचार होता है। इसके साथ-साथ मन्दिर की सफाई, पुस्तक केन्द्र, स्वागत कक्ष, लंगर आदि की नियमित सेवा भी होती है। आप जब भी चाहें और जितने दिन भी चाहें आश्रम में आकर रहें और इन सेवा-साधना क्रमों का लाभ उठायें। शीघ्र ही श्रीविद्या के शिविर भी प्रारम्भ करने का विचार है, जिसकी घोषणा कर दी जायेगी।
4) वर्ष में दो बार तीन दिवसीय सार्वजनिक साधना शिविर (महाशिवरात्रि और विजयदशमी को सम्पन्न होने वाले) तथा दो बार (इस परम्परा में दीक्षित जिज्ञासुओं के लिये) तीन दिवसीय अग्रिम साधना शिविर लगते ही हैं। इसके अतिरिक्त तन-मन सुधार शिविर भी अब वर्ष में दो बार (मल्लके और किला रायपुर आश्रम में एक-एक) लगाने का विचार है। गुरुदेव की आज्ञा से शीघ्र ही वेदान्त-योग-भक्ति आदि साधना धाराओं के सिद्धान्तों तथा ग्रन्थों के अध्ययन हेतु भी शिविर लगाने का विचार है। बाल संस्कार (बच्चों और किशोरों के लिये अलग-अलग) शिविर भी जून की छुट्टियों में शारटी आश्रम (कुल्लू के निकट) में लगाने का विचार है। आप इन शिविरों में सम्मिलित होकर अपनी साधना में और वेग भर सकते हैं और सपरिवार सन्मार्ग पर चलने-चलाने की सेवा भी सकते हैं।
5) आश्रम में पिछले कुछ वर्षों से अनेक विदेशी साधक आते रहते हैं, उनके लिये विशेष रूप से अंग्रेजी में ही साधना व्यवस्था करनी पड़ती है। अन्य शिविरों के साथ में इस प्रकार का प्रबन्ध कठिन होता है, इसलिये ऐसा विचार है कि नियमित आने वाले साधक समूहों से सलाह करके वर्ष में एक या दो साधना शिविर पूरी तरह अंग्रेजी भाषा में ही लगाये जायेंगे। आपमें से भी कुछ ऐसे साधक होंगे जो स्वयं या जिनके बच्चे अंग्रेजी भाषा के अधिक अभ्यस्त हैं, वह भी चाहें तो पूर्व अनुमति लेकर इन शिविरों में भाग ले सकेंगे। महाराज जी की पुस्तकों तथा प्रवचनों को भी अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद करने का एक बहुत बड़ा कार्य है, आपमें में से जो व्यक्ति हिन्दी/पंजाबी तथा अंग्रेजी भाषाओं के अच्छे जानकार हैं, इसमें सहयोग कर सकते हैं।
6) मल्लके आश्रम में एकान्त साधना वास के निमित्त से छ: कुटिया बनी हुई हैं और किला रायपुर आश्रम में भी नये कमरे बन रहे हैं। प्रत्येक कमरे के साथ ही शौचालय एवं स्नानघर तथा सूर्य क्रिया करने के लिये खुला आंगन भी है। जिन गम्भीर जिज्ञासुओं ने सामान्य तथा अग्रिम साधना शिविर लगाये हैं और कुछ एकान्त किया है तथा जो महायेाग के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, वह 7 दिन से लेकर 40 दिन या उससे भी अधिक समय की एकान्त साधना के लिये इन कुटियाओं का उपयोग कर सकते हैं। एकान्त साधना के लिये प्रारम्भ में ही पूरा मार्गदर्शन कर दिया जाता है और आवश्यकतानुसार अल्पाहार आदि कुटिया में एक खिड़की से ही पहु्ँचा दिया जाता है क्योंकि एकान्त की पहली शर्त है न किसी को देखना, न दिखना अर्थात् इन्द्रियों द्वारा किसी से कोई सम्पर्क नहीं। आगे से आगे उन्नत साधकों के लिये पहाड़ों पर भी विशेष साधना शिविर लगाने का विचार है।
7) एक कार्य, जो आप घर बैठे भी कर ही सकते हैं, आश्रम की वेबसाईट और फेसबुक को नियमित देखें, पढ़े और अपने सभी परिवार, मित्र, रिश्तेदारों को उसका सदस्य बनायें। आपके जो भी अनुभव हैं, महाराजजी के कृपाप्राप्ति के, साधना के, आश्रम के या साधनाओं के सम्बन्ध में अथवा कोई जिज्ञासा है, उसे वहाँ पर सांझा करें। इससे सभी को प्रेरणा भी मिलती है और आगे का पथ भी खुलता है। इसके अलावा प्राय: सभी शहरों में, जहाँ भी अपने गुरु परिवार के कुछ सदस्य हैं, साप्ताहिक या पाक्षिक या मासिक सत्संग भी होता ही है; उसमें आप अवश्य भाग लें और अपने साथियों को भी लेकर जायें। साधना की शुरुआत और प्रगति में सत्संग और सत्संगियों से प्रेम बहुत मदद करते हैं। यदि यह सत्संग अभी शुरू नहीं हुआ है, तो आप जब बतायेंगे हम आकर शुरू करवा जायेंगे J
इसके अतिरिक्त एक और विचार है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि यहाँ आश्रम में स्वयं सेवा का ही नियम है, अत: लंगर, मन्दिर, पुस्तकालय, फोन, ईमेल, वेबसाईट, पत्रिका प्रकाशन आदि सभी सेवायें आश्रम के समर्पित साधक ही करते हैं। इतना ही नहीं, प्रयास होता है कि आश्रम को सेवा और सहकार से ही चलाया जाये। इसीलिये दूध प्रतिदिन गाँव से भिक्षा करके लाया जाता है; सब्जी-फल-फूल आदि यथासम्भव आश्रम में ही उगाये जाते हैं; नई फसल आने पर अनाज की भिक्षा मिल जाती है, जो आश्रमवासियों के लिये वर्ष भर पर्याप्त होती है; प्रतिदिन की अन्य आवश्यकताओं को भी इस प्रकार से पूरी करने का प्रयास होता है कि कुछ मोल न लेना पड़े क्योंकि आगे-पीछे प्राय: कहीं न कहीं से कोई न कोई भक्त सेवा पूछने के लिये आ ही जाते हैं और तब उसकी पूर्ति हो जाती है। यह अवश्य है कि नियमित साधना क्रम के साथ-साथ इस स्वावलम्बी सेवा के चलते, कार्यों की अधिकता और सेवादारों की सीमित संख्या के कारण कई बार कुछ कार्यों में (विशेष रूप से फोन, ईमेल तथा वेबसाईट आदि जनसम्पर्क के कार्यों में) विलम्ब भी हो जाता है।
इसलिये ऐसा सुझाव है कि यदि आप लोग (अकेले या परिवार सहित) वर्ष में एक सप्ताह (या अधिक भी) आश्रम को समर्पित कर दें तो आपको साधना का मार्गदर्शन तो समुचित प्राप्त होगा ही (क्योंकि विशेष कार्यक्रम के अवसर पर तो भीड़ होने के कारण व्यक्तिगत समय देना प्राय: सम्भव नहीं हो पाता) साथ ही आश्रम की सेवाओं में भी आप भरपूर सहयोग दे सकेंगे, जिससे आप जैसे अन्य अनेक भक्तों-जिज्ञासुओं को सुविधा होगी। यदि 52 लोगों/परिवारों का योगदान भी होगा तो वर्ष के सभी 52 सप्ताहों में आश्रम का सारा सेवा कार्य और भी अच्छी प्रकार से चल सकेगा तथा सभी भक्तों-जिज्ञासुओं को सेवा समयानुसार मिल सकेगी। 52 तो एक न्यूनतम संख्या है, आश्रम में तो एक बार में कितने भी लोग रह सकते हैं और जब थोड़े से सेवादारों के होते हुये सभी को साधना एवं सेवा का पूरा लाभ मिलता है तो सबके साथ यह सब कितना सहज हो जायेगा। पहले आश्रम में इस प्रकार की सेवा का इतना चलन नहीं था और लोगों को शिविर के बिना यहाँ अधिक खालीपन महसूस होता था लेकिन अब तो मन्दिर बनने से नियमित सेवा एवं साधना का क्रम चल पड़ा है अत: आप बड़ी सहजता-सरलता से इसमें सम्मिलित हो सकते हैं। समय का चुनाव आप सुविधानुसार कर सकते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उसे बदल भी सकते हैं क्योंकि यहाँ पर लक्ष्य काम करने या करवाने का नहीं है बल्कि सेवा और साधना से सभी को जोड़ने का है। एक पुरानी कहावत है,‘जब तक रहेगी जि़न्दगी फुर्सत न होगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो राम से’। घर की चाहरदीवारी से बाहर निकल कर आश्रम में की जाने वाली सेवा और साधना, मोह तथा स्वार्थ से ऊपर उठकर घट-घटवासी राम से नि:स्वार्थ प्रेम करने के लिये ही तो है। हाँ, जो जिज्ञासु परमार्थ पथ पर पूरे वेग से दौड़ना चाहते हैं और बीच-बीच में लम्बा समय या फिर पूरा जीवन ही सेवा-साधना को समर्पित करना चाहते हैं, उनके लिये तो आश्रम में एक सीधा पथ है ही। शुभस्य शीघ्रम्।
आपके प्रेमपूर्ण उत्तर की प्रतीक्षा में,
गुरु चरण चंचरीक,
सूर्येन्दु पुरी
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