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विश्व की सर्वश्रेष्ठ कृति, जिसे विश्वसृष्टा ने अपनी ही आकृति में निर्मित किया, वह मानव चन्द्र-मंगल आदि ग्रहों में अपने यान भेजकर उनसे सीधा सम्पर्क साधने में सफल हो गया। विश्व के किसी भी कोने में वह झटपट पहुँच सकता है। उसे लगने लगा, जैसे सारा विश्व उसका घर बन गया, किन्तु एक वायरस Corona ने थोड़े ही समय में उसे आतंकित कर दिया। एक देश से दूसरे देश तो क्‍या अपने घर से बाहर निकलने की भी मनाही है। छोटे-बड़े सभी देशों में स्कूल, कॉलेज, कार्यालय, संस्‍थान, व्‍यापार, यातायात आदि सब बन्द हो गये हैं। प्राय: सब जगह लॉकडाउन घोषित कर दिया गया है। लोगों को अपने घरों में ही सिमटे रहने की चेतावनियाँ बार-बार दी जा रही हैं। कारोबार ठप्प हो रहे हैं। प्रत्येक प्राणी भयभीत है कि कहीं मुझ पर यह वायरस हमला न कर दे। और हमलों की तीव्रता है कि बढ़ती ही जा रही है।

एक ओर मानव अपनी चेतना को विश्वव्यापी बनाने में निरन्तर प्रयत्नशील है तो दूसरी ओर एक मानव को ही दूसरे मानव से खतरा पैदा कर दिया है, इस Corona Virus ने। मानव अपने आप में ही सिमटता जा रहा है। यह कैसा विकास है?

इसमें शक नहीं कि इस वायरस पर विजय प्राप्त कर ली जायेगी-वैज्ञानिक दिन-रात खोजें करने में लगे हुये हैं-किन्तु क्या वह पूर्ण विजय होगी? समय-समय पर अनेक महामारियों ने मानव जाति पर हमले किये; वे रोगाणु पराजित भी हुये किन्तु उनका स्थान नयी किस्म के रोगाणुओं ने ले लिया। यह क्रम कब तक चलेगा? कब होगी पूर्ण विजय?

क्या रोगाणु ही रोग के मुख्य कारण हैं? नहीं! वस्तुतः रोगाणुओं से भी बढ़कर इन्हें अपने शरीर में प्रवेश प्राप्ति का पथ प्रदान करने वाला मानव, स्वयं अपने को रोगी बना देने में मुख्य कारण है। पथ प्रदान करना मात्र ही नहीं बल्कि विचार करने वाली बात यह है कि कहीं वह इन्हें अनजाने ही निमन्त्रण तो नहीं देता रहता? एक रोगाणु पर विजय प्राप्त होती है तो दूसरे रोगाणु कहाँ से आकर प्रविष्ट हो जाते हैं मानव शरीर में? आखिर, कहाँ है रोगों पर पूर्ण विजय प्राप्ति का पथ?

पूर्ण विजय तो तभी मानी जायेगी जब Corona Virus तो क्या कोई भी रोगाणु शरीर पर हमला न कर सके। इतना ही नहीं, अन्य रोग जैसे कैंसर, शुगर, ब्लड प्रेशर, तनाव, गैस, एसिडिटी आदि शरीर के ही अन्दर पनपने वाले जानलेवा रोग भी निर्वीय हो जायें।

क्या इनके लिये अनेक अचूक औषधियों का आविष्कार करना होगा? नहीं! ऐसी बात नहीं है क्योंकि औषधि सेवन तो प्रायः रोगोत्पत्ति के बाद ही होता है; जहाँ वह पूरा काम करे या न करे। इसके लिये तो हमें ऐसी विधि अपनानी होगी जो रोगों के उत्पन्न होने की धरा का ही रूपान्तरण कर दे; जो मानव को पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करे। ध्यान रहे, रोग अनेक हो सकते हैं किन्तु स्वास्थ्य सदा एक ही होता है। मात्र स्वास्‍थ्‍य (रोग मुक्ति) ही नहीं बल्कि पूर्ण स्वस्थ होने की विधि अपनानी होगी।

कोई कह सकता है कि यह तो कठिन कार्य है? वस्‍तुत: नहीं! क्योंकि रोग शरीर की प्रकृति नहीं हैं, स्वास्थ्य ही शरीर की प्रकृति है। रोग तो शरीर की विकृतियाँ हैं। यह विकृतियाँ मानव पिण्ड में तीन स्तरों पर प्रगट होती हैं- 1) मन,  2) प्राण, 3) इन्द्रियाँ। यह तीनों विकृत होकर अपने आदि शक्ति स्रोत से सीधे नहीं जुड़े रह पाते और इनकी गति शरीर से बाहर की ओर होती रहती है। ये ही बाहर से रोगाणुओं (Corona Virus आदि) को अन्दर आने का अनजाने ही निमन्त्रण देते हैं या अन्दर खींचते हैं। ये ही स्थूल शरीर के अन्दर भी रोगाणुओं को पनपने देते हैं।

(1) मन की विकृति है- भिनभिनाता हुआ चंचल और विषयों का गुलाम मन।

(2) प्राण की विकृति है- श्वास का उथलापन और अधूरा आना-जाना।

श्वास के उथलेपन से मन बहिर्मुखी और चंचल बनता है, मन की चंचलता से श्वास में उथलापन आता है।

(3) मन और श्वास की मिली-जुली चालों का परिणाम है- इन्द्रियों का विषयों (खान-पान, प्राणी-पदार्थों) की आसक्ति जाल में उलझते रहना।

यह तिकड़ी ही रोगाणुओं को अन्दर खींचती है और अन्दर पनपने देने का ताना-बाना बुनती है।

कुछ लोग बेशक रोगों का कारण प्रारब्ध (पूर्वकृत कर्मजन्य वासना संस्कार) को मानें अथवा प्रमाद को मानें या फिर किसी साधक की विकसित होती चेतना के अधोगामी शारीरिक प्रकृति के साथ तालमेल के अभाव को मानें, कुछ भी हो सभी स्थलों में मन, प्राण, इन्द्रियों की तिकड़ी ही रोगों की धरा बनती है।

अब प्रश्न यही है कि इस तिकड़ी की बहिर्मुखी जोड़-तोड़ को कैसे तोड़ा जाये? मन की और प्राणों की पूर्ण अन्तर्मुखता तथा इन्द्रिय छिद्रों को पूरा विकसित करना तो एक महायोगी का लक्ष्य है जो रोग ही नहीं, जरा-मरण पर भी विजय प्राप्त करने की साधना करता है किन्तु यह चर्चा हम यहाँ बिल्कुल नहीं करने जा रहे। हमारा लक्ष्य तो Corona Virus जैसी महामारियों का नाश तथा पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति का पथ विधान करने का है, जिसे कोई भी प्राणी आसानी से अपना सके और उस पर चल सके। जिससे उसके मन, प्राण और इन्द्रियों का परस्पर तालमेल बना रहे और शरीर में इनकी स्थिति ऐसी हो कि ये रोगाणुओं को अनाश्रित कर, उनको पनपने ही न दें।

मन, प्राणादि के भी बिखराव तथा बहिर्गति से स्थूल शरीर शिथिल होता है, कमजोर होता है और फिर रोगों को निमन्त्रण भी मिलता है। अत: इसे शक्तिशाली बनाये रखना मानव का प्रथम उपाय है। इसका सबसे सरल और सहज साधन है- 1) समुचित आहार अर्थात् जितनी जठराग्नि उसमें है, उससे कम भी नहीं और न ही अधिक, जिससे पूरा पोषण उसे प्राप्त हो। 2) समुचित आराम, निद्रा आदि। 3) कर्मठता या परिश्रम भरी क्रियाशीलता।

आराम-निद्रा से मन का बिखराव कम होगा, कर्मठता से इन्द्रियों की बहिर्मुखता कम होगी और आहार से प्राणों में शक्ति आयेगी। यदि ऐसा सरल जीवन प्राणी जीता रहे तो वह स्वस्थ बना रह सकता है किन्तु ऐसा प्रायः सम्भव नहीं होता, इन कारणों से अति हो ही जाती है- 1) लोभ-लालच के कारण अधिक कार्य या फिर आलस्य, 2) विषय सुख के लिये अति आहार, विषय सेवन आदि, तथा 3) मन की दौड़ तो कभी कम होती ही नहीं। ये तीनों रोगों की आश्रय स्थली बनते हैं।

दवाईयाँ भी एक प्रकार का विशेष आहार ही हैं किन्तु इनका उपयोग प्रायः रोग आने पर ही होता है। यदि स्वस्थ व्यक्ति इनका सेवन करने लगे तो वह रोगी हो सकता है।

फिर उपाय क्या है? सामान्य मानव अधिक संयम नहीं कर सकता; वह योगी कैसे बन सकता है? फिर वह रोगों से कैसे बचा रह सकता है?

एक उपाय है- शरीर में तैजस तत्व की वृद्धि की जाये। दूसरे शब्दों में शक्ति का जागरण और वृद्धि की जाये।

वैसे तो आहार के द्वारा भी शक्ति प्राप्त होती है किन्तु थोड़ा भी अधिक या कम आहार तो अग्नि मन्द करेगा। शरीर मोटा होगा या क्षीण होगा। दोनों अवस्‍थाओं में शक्ति क्षीण ही होगी।

इसी प्रकार कर्मठता से भी शक्ति बढ़ती है किन्तु बहिर्मुखी कर्मों तथा लोभ-लालच अथवा राग-द्वेष भरे कर्मों से तो शरीर थकता-टूटता ही अधिक है। शक्ति क्षीण ही होती है।

मन की बहिर्मुखता तो शरीरस्थ सहज शक्ति स्रोत से सम्बन्ध विच्छेद का प्रधान कारण है ही।

आहार से रस, रक्त, माँस, मेद, मज्जा, अस्थि, वीर्य (शक्ति), इन सात धातुओं का निर्माण होता है। यदि तैजस तत्व की कमी हो तो ‘देहं क्लेदयन्त्यः शिथिली कुर्युः’ (शांकर भाष्य, छा. उ.) अर्थात् देह ढीली-ढाली (मोटी, शक्तिहीन) होती है। तेज ही खाये-पीये रस को शोषित करके रक्त और प्राण भाव में परिणत करता है। तेज से ही मन सबल होता है और वाणी में शक्ति का जागरण होता है।

उपनिषद् वाणी की स्पष्ट घोषणा है, ‘तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूल…’ (छा. उ.) अर्थात् हे सौम्य! तेजोरूप अंकुर के द्वारा सद्रूप मूल की शोध कर। भाव यह है कि तेज के माध्यम से सत् (विनाशरहित, रोग-व्याधिरहित) परमात्मा से योग युक्त होने का प्रयास कर क्‍योंकि इससे प्राणी भी जरा-व्याधि आदि रोगों-दुःखों से मुक्त होगा। यह घोषणा है उन सनातन ऋषियों की जो स्वयं पूर्ण मुक्त थे। इस साधना का उपयोग वर्तमान में भी जो कोई भी करेगा और जितनी भी मात्रा में करेगा, उतना ही वह रोग-दुःख से मुक्त भी अवश्य होगा क्योंकि ये घोषणायें सार्वभौमिक और सार्वकालिक सिद्धान्तों पर आधारित हैं।

यह किसी को भी सहज समझ में आ सकता है कि रोगाणु, पृथ्वी और जल बाहुल्य आधार तथा वातावरण में पनपते और गति करते हैं। जहाँ अग्नि प्रचण्ड हो, तैजस तत्व का बाहुल्य हो वहाँ रोगाणु कभी नहीं पनप सकते; वृद्धि को प्राप्त तो होंगे ही नहीं बल्कि तैजस तत्व में विलीन हो जायेंगे। सूर्य के तेज में, अग्नि मण्डल में रोगाणुओं को भागने का, छिपने का कोई रास्ता नहीं है। वहाँ एकमात्र रास्ता है तेज में विलीन हो जाने का। स्थूल शरीर में भी एक सुषुम्ना पथ (रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ) है; यह अग्नि पथ है (किसी भी योगी के लिये यह एक सामान्य, सर्वविदित जानकारी है)। इन्द्रिय छिद्रों में पृथ्वी और जल अणुओं का बाहुल्य रहता है। सामान्य बहिर्मुखी प्राणी की चेतना इन्द्रिय छिद्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। यही रोगाणुओं के पनपने का क्षेत्र है, यहीं से वे सारे शरीर में गति करते हैं। यदि प्राणी की चेतना की प्रवेश सुषुम्‍ना के अग्नि क्षेत्र में हो जायें तो उसके तेज में यह रोगाणु पनपने तो दूर, नष्‍ट ही हो जायेंगे।

अत: शरीरस्थ इस तैजस वा अग्नि क्षेत्र सुषुम्‍ना में प्राणी की चेतना का प्रवेश कैसे हो, अब यही बड़ा प्रश्न है क्‍योंकि अभी तो एक सामान्‍य मनुष्‍य की चेतना इन्द्रिय क्षेत्रों में ही कैद है।

अवश्य ही इसका उपाय है और यह उपाय अत्यन्त सरल है। इसके लिये गहरी ध्यान समाधियाँ लगाने की कोई आवश्यकता नहीं। यह अत्यन्त सरल और अत्यन्त प्रभावशाली उपाय आगे दिये गये हैं।

(1) इनमें से पहला उपाय है- सिद्धामृत सूर्य क्रियायोग।

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सूर्य क्रियायोग नाम से प्रचलित इस साधना को लाखों लोग अब तक कर चुके हैं। इससे दो-चार दिनों में ही लाभ मिलने शुरू हो जाते हैं। इसी साधना को जरा-व्याधि तथा मृत्युजित् सनातन ऋषि ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से दो-तीन घण्टे की अवधि तक दिन में तीन-तीन बार करते रहे हैं। वर्तमान समय में एक सामान्य प्राणी इसे 30-40 मिनट भी कर ले तो वह तेजोमय बनने का पथ प्राप्त कर लेगा।

जब सूर्य लालिमा मुक्त तेजोमय हो जाये, तब इसे करना अधिक उचित है। बैठकर या खड़े होकर भी इसे किया जा सकता है। सूर्य की ओर मुख करके, रीड़ की हड्डी सीधी रखते हुये, बन्द आँखों को सूर्य से सीधे जोड़ना है अर्थात् गर्दन थोड़ा पीछे रखना है जिससे सूर्य किरणें 90 डिग्री के कोण से नेत्र पटलों पर सीधी पड़ें। 5-10 मिनट आँखों की क्रियायें और श्वासमयी नाभि क्रियायें करें। फिर ऊँचे-नीचे स्वरों में विशेष मन्त्रों का उच्चारण करते हुये (1) हाथों को ऊपर उठाये रखें जैसे आवाहन कर रहे हों, फिर (2) दायें-बायें फैलायें जैसे आलिंगन कर रहे हों, अन्‍त में (3) गोद में रख लें जैसे समर्पण कर रहे हों। इस सारी क्रिया को 15-20 मिनट लग सकते हैं। विशेष ध्यान रहे कि इन तीनों मुद्राओं में (बन्द) आँखों का सीधा सम्बन्ध सूर्यदेव के साथ बना ही रहे और सस्‍वर मन्‍त्रोच्‍चारण होता रहे। इस प्रकार (1) सूर्यदेव के साथ नेत्र सम्‍बन्‍ध बनाये रखकर ध्‍यान करने से आँखों के पथ से सूर्य तेज मस्तक में प्रविष्‍ट होता हुआ और उत्तरोत्तर सारे शरीर में फैलता हुआ, सुषुम्ना पथ को खोलेगा। (2) सस्‍वर मन्त्रोच्चारण से मन एकाग्र और अन्तर्मुखी होगा। (3) हाथों की विशेष मुद्राओं के सहयोग से ग्रहण किया गया सूर्य तेज समस्त इन्द्रिय छिद्रों तक प्रसारित होगा। (वस्तुतः इस प्रक्रिया में प्राय: छः-सात मुद्रायें प्रयोग की जाती हैं किन्तु तीन मुद्रायें भी पूरा काम करेंगी)। सूर्य क्रिया के अन्त में 5-10 मिनट पेट के बल शवासन में लेट जायें। इससे सारा सूर्य तेज सुषुम्ना के अग्नि पथ में सहज गति करेगा; वहाँ विश्रान्ति लाभ करेगा।

सूर्यदेव का किसी भी धर्म परम्परा के साथ कोई पक्षपात नहीं। सनातनी कोई वैदिक मन्त्र, सिख सज्‍जन गुरुवाणी के कोई श्लोक, जैन-बौद्ध आदि अपने धर्मों से कोई प्रार्थना, मुसलमान जन कुरान शरीफ की कोई आयतें, ईसाई बाइबल के कोई गीत ले सकते हैं। बस, इतना ही है कि इन्हें भाव में भर कर ऊँची वाणी में गाते हुये उच्चारण करना है।

ध्यान रहे, यह सूर्य क्रिया योग चश्मा लगाकर किया जाने वाला Sun Bath कदापि नहीं है। Sun Bath में तो सूर्य किरणों का त्वचा पर ही जमावड़ा होता है किन्तु इसमें सूर्य किरणें आँखों के पथ से समस्त शरीर के अन्दर प्रवेश करती हैं।

याद रहे, यह क्रिया योग आँखों को बन्‍द रखते हुये ही करना है। वस्‍तुत: प्रारम्भ में बन्द आँखों के द्वारा करने से अधिक परिणाम मिलते हैं, बजाये खुली आँखों से करने के। वैसे भी खुली आँखों से करने के लिये अत्‍यन्‍त सावधानी तथा साक्षात् मार्गदर्शन परम आवश्‍यक है।

यह सूर्य त्राटक (Sun Gazing) भी बिल्कुल नहीं है क्योंकि इसमें हम बाहर कहीं दृष्टि नहीं टिका रहे। इसमें तो सारा ध्यान अपनी आँखों पर रखते हुये, अपने शरीर को ही मन ही मन देखते रहना है अर्थात् इसमें शरीरस्थ सूर्यों के भी सूर्य परमात्मा से योग युक्‍त होना है।

जिस उन्नत साधक की आँखें अन्दर की ओर खुली हों, वह बादलों में भी सूर्य साधना कर सकता है। विशेष साधक को तो रात्रि के अन्धकार में भी सूर्य के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने में कोई बाधा नहीं आयेगी। यही तो महायोगियों की मध्य रात्रि सन्ध्या है क्योंकि विशेष रूप से तो अन्तःस्थ सूर्यों के भी सूर्य परमात्‍मा के साथ ही सम्बन्ध स्थापित करना है। बाह्य सूर्य तो एक माध्‍यम है।

 

(2) तेजोवृद्धि की दूसरी सहकारी साधना है- संजीवनी क्रिया।

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खड़े होकर, लेटकर, तथा बैठकर की जाने वाली तीन-तीन श्वास क्रियाओं का यह एक अद्भुत संगम है। जैसे जब एक बच्चा श्वास लेता है तो पैर के अँगूठे से लेकर मस्तक तक सारा शरीर जीवनदायी प्राणों के स्पन्दनों से आपूरित होता है। बच्‍चे के शरीर में हो रही इस क्रिया को कोई दूसरा प्राणी भी स्पष्ट देख सकता है। संजीवनी क्रिया के द्वारा ऐसा ही श्वास भरने-छोड़ने के पथ को शरीर के अन्दर विकसित किया जाता है।

शरीर में नाभि मण्डल प्राणों का केन्द्र है। इसके आधार में ही, चार अँगुल नीचे अग्नि केन्द्र है। प्राण नाड़ियों से सुषुम्ना की अग्नि धारा में जाने का सीधा रास्ता खुलता है। संजीवनी क्रिया के द्वारा भरा-पूरा श्वास ले सकने में रोगाणुओं को बलात् अग्नि कुण्ड में जाना ही पड़ेगा और वे निर्मूल होंगे।

Corona Virus का तो W.H.O. ने नामकरण ही Severe Acute Respiratory Syndrome Corona Virus -2 (SARS-COV-2) किया है अर्थात् श्वास के माध्यम से अन्तः प्रविष्ट यह Virus प्रथमतः श्वसन प्रणाली को ही दुष्प्रभावित करता है। क्योंकि उथला और अधूरा श्वास, जो सामान्यतः सभी प्राणियों का होता है, उसका शरीरस्थ अग्निमय तेजोकुण्ड के साथ कभी सीधा सम्बन्ध बनता ही नहीं। तेजोकुण्ड के साथ सीधा सम्बन्ध यदि किसी का बन जाये तो वह रोगाणुओं के झुण्ड में विचरण करता हुआ भी उनसे अप्रभावित रहेगा।

सामान्यतः श्वास का वेग बाहर अधिक और अन्दर कम होता है। इससे बाहर फैले रोगाणुओं को अन्दर जाने का रास्ता तो मिलता है किन्तु शरीरस्थ अग्नि कुण्ड से उनकी दूरी भी बनी रहती है। इससे उन्हें पनपने का मौका मिलता है। अनेक जोर के व्यायामों के करने से भी बाहर तो श्वास का वेग विशेष बनता है किन्तु अन्तरस्थ अग्नि कुण्ड से सम्बन्ध पूरा बना नहीं रहता। इसीलिये व्यायामों से थकावट अधिक होती है।

यदि श्वास का वेग शरीर के अन्दर विशेष हो जाये तो ये रोगाणु अग्नि कुण्ड में पड़कर दग्ध ही होंगे; उनके लिये और कोई रास्ता नहीं। इससे भी बढ़कर यदि श्वास का वेग शरीर के अन्दर तो विशेष हो ही, बाहर भी विशेष हो जाये तो ऐसा साधक बाहर के वायुमण्डल को भी शुद्ध करेगा। ऐसी स्थिति संजीवनी क्रिया और सूर्य क्रियायोग, दोनों के मेल से सहज ही बनती है।

 

(3) तीसरी पूरक साधना है- अग्नि क्रियायोग।

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यह साधना आजकल प्रचलित हवन से विशेष तथा भिन्न है और सनातन काल में प्रचलित अग्निहोत्र के अधिक समीप है। इसमें पूर्ण अग्नि (लकड़ियों के आश्रित) प्रचण्ड करके, कुछ हस्त मुद्राओं तथा विशेष रूप से ‘स्वाहा’ इस मन्त्र का दीर्घ पुट किसी भी दूसरे मन्त्र के साथ लगाकर अग्नि का आहार मुख से किया जाता है। अग्नि-आहार ग्रहण का केन्द्र मुख होता है किन्‍तु साथ ही इसका एक सिरा आँखों में और दूसरा सिरा नाभि में होता है। आँखें तो स्‍वाभाविक ही तेज को ग्रहण करती हैं और नाभि मण्‍डल में शरीरस्‍थ अग्नि कुण्‍ड है। हाथों के द्वारा अग्नि का आधान मस्‍तक से लेकर पैर के पंजों तक एक क्रम से शरीर के सभी अंगों में किया जाता है।

प्राय: पूरी विधि सम्‍पन्न करने में एक घण्‍टे का समय लगता है। इस विधि से ग्रहण की गई तेजोमय स्‍थूल अग्नि, स्‍थूल शरीर पर सीधे ही प्रभाव डालती है। एक बार करने से ही रोग से रोगी व्‍यक्ति को भी असीम ऊर्जा तथा शक्ति का पूरा अनुभव होता है।

स्थानाभाव के कारण हम संजीवनी क्रिया तथा अग्नि क्रिया की पूरी विधि नहीं लिख पा रहे हैं।

 

(इन साधनाओं की विशेष जानकारी आश्रम की वेबसाईट तथा प्रकाशित अनेक पुस्तकों से प्राप्त की जा सकती है। अथवा समीपस्थ कोई इन साधनाओं का जानकार हो तो सीधा सम्पर्क विशेष मददगार होगा। प्रायः शब्द सुरति संगम आश्रम से जुड़े साधक तथा कुण्ड-अग्नि-शिखा पत्रिका के पाठक इन सभी क्रिया योग साधनाओं से परिचित ही हैं। आप स्वयं भी इसका लाभ लें तथा इष्ट मित्रों को भी इसकी जानकारी दें, जिससे कि आप सभी न केवल Corona जैसी महामारी का दृढ़ता से सामना कर सकें बल्कि सदा ही पूर्ण स्वस्थ एवं शक्ति सम्पन्न बने रह सकें।)