मानवी चेतना के विकास पथ में कोरोना (जैसे) वायरस, एक बन्द द्वार! इन्हें खोलना होगा!!
भूमिका :- मानव चेतना का विकास रथ उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है, इसमें कोई शक नहीं, किन्तु कोरोना (जैसे) वायरस के लगातार हमलों ने –‘विकास’ कहाँ तक हुआ है? अभी क्या-क्या कमियाँ हैं? और विकास की सही दिशा क्या होनी चाहिये? – ऐसा सोचने के लिये मानवी चिन्तन को झकझोर कर रख दिया है।
एक ओर तो नये-नये वैज्ञानिक अन्वेषण हमारी जीवन यात्रा को समृद्ध बना रहे हैं, सारी दुनिया एक-दूसरे के अत्यन्त समीप आती जा रही है। दूसरी ओर मृत्यु-भय जनक कोरोना वायरस ने मानवों को ही अपने प्रसार का माध्यम बना लिया है। सारी दुनिया में कर्फ्यू लगे हुये हैं; लोगों को घरों में ही रहने के लिये प्रशासन की चेतावनियाँ निरन्तर जारी हैं।
अभी मानव में इतनी चेतना नहीं विकसित हो सकी, भौतिक विकास की विशेष प्रगति के बावजूद, विकास के अनेक दावों के बावजूद भी, कि वह कोरोना वायरस का मृत्युदूत बनने से इंकार कर सके। आखिर अभी वह इतना दुर्बल क्यों है? इन रोगाणुओं के आगे न चाहते हुये भी नतमस्तक क्यों है?
विकास की सही दिशा तो यह होनी चाहिये कि मानवी व्यक्तित्त्व में इतनी शक्ति जागृत हो जाये कि वह रोगाणुओं ही नहीं, अनर्थकारी सभी हिंसक कुविचारों को भी अपने में आने न दे। विकास तभी सही दिशा में प्रगति करेगा जब मानव के व्यक्तित्त्व से संकीर्ण धर्म-देश-काल की हदबन्दियों से मुक्त आपसी सौहार्द, प्रेम, दया, आनन्द के शक्तिशाली स्पन्दन, सभी दिशाओं में प्रसरित होने लगें।
मानव को अपने आपको, अपने व्यक्तित्त्व को रूपान्तरित करना होगा। मानसी (ख्याली) चिन्तन मात्र से ही यह होना कठिन है। इसके लिये 1) कुछ प्रयोग, कुछ साधनायें करनी होंगी, और 2) चिन्तनधारा को ही नयी दिशा देनी होगी। लेकिन कैसे?
अपने शरीर में ही शक्ति जागरण करना होगा। ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाही’, किसी भी प्रकार की जड़ पदार्थों की पराधीनता से मुक्त होना होगा। लेकिन कैसे?
इस लघु लेख का यही विषय है – पढ़ें, विचारें और साधक बनने के विकास रथ पर भी सवार हों।
मृत्यु-भय :- अपने विनाश की कल्पना अत्यन्त भयावही है। ‘मैं-मैं’ ही अन्धकार में नष्ट हो गया तो इस सारे मेरे-तेरे का कोई मूल्य नहीं। सभी परम्पराओं, ऐश्वर्यों, लम्बी-लम्बी भागदौड़ों, उड़ानों, संघर्षों से रहित ‘शून्य रूप हुआ मैं’, क्या यही मेरा भविष्य है? मेरे समस्त वर्तमान का यह भविष्य, यह अन्त? ऐसी कल्पना ही भयावही है।
मूढ़बुद्धि प्रायः ऐसी कल्पना नहीं कर पाते। लाईन में लगे बकरे, कसाई के छुरे से भयभीत नहीं होते कि मेरा भी नम्बर आने वाला है, किन्तु जब छुरे की धार गर्दन पर पड़ती है तो चीखों को रोक भी नहीं सकते। अपना संहार कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता।
वर्तमान समय इतिहास में भयंकरता के रूप में अविस्मरणीय रहेगा। सारी दुनिया भयभीत है। जहाँ देखो, जिस किसी भी माध्यम में, ‘कोरोना’ वायरस ने अधिकार जमाया हुआ है। ‘मृत्यु-भय’ की आधार शिला पर आसन लगाये, यह वायरस दुनिया का निरंकुश डिक्टेटर बना बैठा है।
मृत्यु का अर्थ है स्थूल शरीर, जिसका कभी जन्म हुआ था, उसका विनाश। कोरोना वायरस इस मृत्यु का अग्रदूत बन कर धराधाम में मृत्यु-भय का सृजन कर रहा है। भयानक विडम्बना यह है कि सीधे हमला न करके इसने मनुष्यों को ही अपने फैलाव का माध्यम बनाया हुआ है। संदेश प्रसारित किये जा रहे हैं, अपने-अपने घरों में ही रहो। कर्फ्यू लगे हुये हैं। लोग मजबूर हैं।
यह मृत्यु-भय प्राणियों को बेबस और मजबूर बनाये हुये है। कुछ लोग यहाँ तक भी शोर मचा रहे हैं – ‘बेशक मर जायें किन्तु हम घरों में बन्द नहीं रह सकते।’ ये लोग बहिर्मुखी रजोगुणी अहं से मजबूर हैं। कुछ अन्य लोगों ने तो अपनी संकीर्णता और तमोगुण की हद ही कर दी कि ‘हम तो मरेंगे लेकिन अपने शत्रुओं को मारकर; corona virus को अपने शत्रुओं में हम संक्रमित करेंगे।’
यह कौन है, जो मृत्यु-भय का भी दुरुपयोग कर रहा है? यह है, प्राणी का ‘अहंकार’। शरीर की मृत्यु बेशक हो जाये, अपने अहंकार की मृत्यु हम नहीं होने देंगे।
ये दो प्रकार के व्यक्ति हैं – एक तो रजोगुणी (बहिर्मुखी जो बाह्य पदार्थों, साधनों, परिस्थितियों के गुलाम हैं) तथा दूसरे तमोगुणी (अन्धे अहं की गर्त में डूबे, जो दूसरों से भी सम्बन्ध स्वार्थ और अहंकार के अन्धेरे में ही करते हैं)।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी अवश्य है, जिनमें मृत्यु-भय के कारण प्रेम, सेवा, दूसरों में अपनापन आदि दैवी गुण पनप रहे हैं, वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं। ऐसे प्राणी मृत्यु-भय से मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं! ऐसे व्यक्ति जो दूसरों से सम्बन्ध तो जोड़ते हैं किन्तु प्रेम, सेवा के सतोगुणी प्रकाश में हैं; रजोगुण, तमोगुण तो उनमें भी होगा किन्तु कुछ कम मात्र में।
पहले व्यक्ति जो स्थूल शरीर की हदबन्दी के पूरे कैदी हैं अभी; दूसरे जो इस कैद से मुक्त होने के लिये प्रयत्नशील हैं; मुक्तिपथ तो जाने-अनजाने दोनों ही खोज रहे हैं क्योंकि मानव मात्र की नियति है – सभी भयों, राग-द्वेषों, रोगों आदि से मुक्ति।
दरअसल सभी अनर्थों का कारण है मानव पिण्ड को ही ‘मैं’ समझना तथा अपने वास्तविक आनन्द स्वरूप को भूले रहना; और अभी तो प्राणी की चेतना सामान्य रूप से स्थूल शरीर में ही केन्द्रित है। यही कारण है रोगों का, भयों का (विरले अध्यात्मविदों को छोड़कर जो सभी रोगों, भयों से मुक्त हैं; वस्तुतः रोग-मृत्यु आदि के भय से वह मात्र मुक्त ही नहीं हैं, उनके लिये तो रोग, मृत्यु आदि हैं ही नहीं)।
एक महाप्रश्न है – ऐसी मुक्त स्थिति कैसे सम्भव है? क्या कोई साधना विधि है, जिसे कोई भी प्राणी, मृत्यु-भय ग्रस्त प्राणी भी सहजता से कर सके? है, ऐसी साधना। इसी की संक्षिप्त चर्चा हम करने वाले हैं। इससे ‘कोरोना’ तो क्या कोई भी रोग प्राणी पर हमला नहीं कर सकेगा।
ध्यान रहे, रोग मनुष्य शरीर की प्रकृति नहीं, यह तो विकृति है क्योंकि चैतन्य तत्त्व (परमेश्वर), जो आनन्द और शक्ति का रूप भी है, इसी से मर्त्य और जड़ शरीर की उत्पत्ति हुई है – यह सनातन ऋषियों का अनुभवगम्य सिद्धान्त है। ‘मैं यह शरीर हूँ’, ऐसा अनुभव भी तो उसी चैतन्यता की, अन्धकार में से प्रकट हो रही, एक प्रकाशमयी किरण ही तो है। ‘मैं यह मर्त्य शरीर हूँ’, इस चैतन्यमयी एक किरण ने और विकसित होते हुये, रोगादियों से मुक्तिलाभ कर, आनन्द स्वरूप होना है। कैसे होना है? इसका अनुसन्धान ही साधना है।
भौतिकी वैज्ञानिक मानते हैं – मस्तक के असंख्य न्यूरॉनों (सूक्ष्माणुओं) के परस्पर संघटनों, गतियों के परिणाम स्वरूप चिन्तन (चेतना का एक अंश) की उत्पत्ति होती है। इसी से प्राणी सुख-दुःख तथा रोगादि का अनुभव करता है अर्थात् जड़ अणुओं की गतिविधियों का परिणाम है चेतना (consciousness); किन्तु यह सत्य होता हुआ भी एक अधूरा सत्य है।
अध्यात्मविदों का अनुभव है कि अखण्ड चेतना (परमात्मा) ही अपनी शक्ति से शून्यता और फिर जड़ता का आवरण ओढ़कर चौरासी लाख योनियों में से होकर मनुष्य शरीर में प्रकट हो रही है। मनुष्य शरीर में ये अखण्ड चेतना मस्तकीय न्यूरॉनों में पेचीदा हलचलें पैदा कर नाना क्रिया-प्रतिक्रियाओं मयी चिन्तन शक्ति के रूप में आविर्भूत हो रही है। मानवी शरीर में प्रादुर्भूत हुई चेतना, प्रारम्भिक ही है; इसके और आगे विकसित होती हुई, इसने मानव शरीर की हदबन्दियों से मुक्त होकर, अखण्ड चेतना से एकाकार होना है। कुछ अग्रणी दूत इस अन्तिम स्थिति को प्राप्त कर भी चुके हैं और कुछ प्राप्ति के पथ पर हैं। यह अनन्त का पथ है, जिसका कोई अन्त नहीं। रोगादियों से, मृत्यु से मुक्ति तो बीच की बातें हैं।
किन्तु यदि जड़ से ही चेतना का विकास मानें तो मानव शरीर में आकर विकास का रथ थम सा जायेगा। जैसे कि मानव का जन्म हुआ और मृत्यु में सब कुछ शून्य हो गया। और फिर मानव शरीर के आगे क्या? कौन सी विशेष चैतन्यता मानव शरीर में से विकसित होगी?
आईये, मानव पिण्ड की स्थूलता, रोगादिकता से मुक्ति के पथ का एक सिंहावलोकन करें।
अभी तो मानव शरीर कोरोना जैसे वायरस की संक्रमणता का केन्द्र बन गये हैं किन्तु उत्तरोत्तर मानवी चेतना को विकसित होते हुये ऐसा बनना है कि प्रेम, दया, शक्ति, आनन्द आदि की शक्तिशाली किरणों का संक्रमण दशों दिशाओं में, उसके शरीर से सहज ही होता रहे। यह है विकसित होती मानवी सभ्यता का अगले चरण में प्रवेश। कुछ लोकनायक आगे आयेंगे और अन्यान्य साधक प्रसन्नता, श्रद्धा से (बिना किसी धन-मान की इच्छा किये, अपने अहंकार को व्यापक करते हुये) उनका अनुकरण करने वाले होंगे।
इसके लिये करना क्या है? कुछ साधनायें। ये साधनायें सरल हैं। इनका प्रथम परिणाम है – कोरोना जैसे ही नहीं बल्कि सभी रोगाणुओं पर विजय प्राप्ति का पथ उन्मुक्त होना। ध्यान रहे, ये साधनायें केवल मन के ख्याली चिन्तन ही नहीं हैं बल्कि मन के सात्त्विक चिन्तनों में प्राणिक शक्ति, मानसिक दृढ़ता तथा ईश्वरीय शक्ति के अवतरण का भरपूर पुट भी लगाना है।
ऐसी अन्तर्मुखी शक्ति से हमने मस्तक के न्यूरॉनों को क्रियाशील करना है, उन्हें ऐसा input (इनपुट) देना है, जिससे उनमें क्रिया तो बढ़े किन्तु परिस्थितियों की पराधीनता के वशवर्तिनी प्रतिक्रियाओं का बहिर्मुखी वेग कम होता जाये और यह वेग सारे मस्तक के अन्दर ही इतना भरता जाये कि इन्द्रिय छिद्रों तथा बाह्य विषयों से मुक्त होती सहज स्वतन्त्र चिन्तन शक्ति की धारा प्रवाहित हो उठे। यह ही है, शरीर की हदबन्दी से मुक्त होती मानसिक चिन्तन धारा। जैसे-जैसे यह स्वतन्त्र चिन्तन धारा व्यापक और प्रबल होती जायेगी, न्यूरॉनों की गतिविधियाँ इन चिन्तनों से सीधी प्रभावित होंगीं। तब चेतन शक्ति मस्तक को नियन्त्रित करेगी, न कि मस्तकस्थ न्यूरॉन गतियाँ। मानवी सभ्यता के विकास में यह एक बड़ा कदम होगा। मानवी संकल्प बल से रोगादिकों का नियन्त्रित होना (अथवा रोगरहित होना क्योंकि रोग कोई भी नहीं चाहता), चेतन शक्ति के स्वतन्त्रता प्राप्त करने से पहले ही हो जायेगा।
जिस input से प्रतिक्रिया कम हो किन्तु क्रियाशक्ति अधिक हो – और उसे मस्तक के न्यूरॉन अपने में हज़म करते भी जायें – ऐसा input विशेष ही होगा, इसमें कोई शक नहीं है।
नौ इन्द्रिय द्वारों से मस्तक के माध्यम से मन, चिन्तन (या सूक्ष्म शरीर) को input मिलता है। किन्तु दशम छिद्र से, जो अब तक सभी प्राणियों में लगभग बन्द है (केवल योगी साधकों को छोड़कर), मन या सूक्ष्म शरीर को सीधे ही शक्ति प्राप्त होती है। इस दशम छिद्र या द्वार का खुलना मानवता के विकास में विशेष उड़ान भरने जैसी बात है।
जैसे-जैसे सूक्ष्म शरीर (मन) में प्राणी की चेतना का प्रवेश होता जायेगा, प्राणी रोगादियों से मुक्ति लाभ भी करता जायेगा। स्थूल शरीर ही रोगों और दुःखों का केन्द्र बनता है, सूक्ष्म शरीर में रोगादियों के लिये कोई स्थान नहीं। स्थूल शरीर के मृत्युग्रस्त होने पर प्राणी की चेतना, सूक्ष्म शरीर से ही गति करती है और समय पाकर नव स्थूल शरीर का निर्माण भी सूक्ष्म शरीर ही, माता-पिता के स्थूल रज-वीर्य के माध्यम से ही, करता है। सूक्ष्म शरीर में चैतन्यता (consciousness) काफी हद तक विकसित और स्थूल शरीर की हदबन्दी से मुक्तप्राय रहती है।
सीढ़ियाँ जो नीचे गिरने का कारण बनती हैं, वे ही ऊपर उठने का साधन भी बनती हैं। जिन इन्द्रिय छिद्रों से चेतना बहिर्मुखी बनी जड़ पदार्थों की गुलाम बनी है, उन छिद्रों की अन्तर्मुखता ही चेतना को स्वतन्त्र बनाने का साधन बनेगी।
नौ इन्द्रिय छिद्र प्रसिद्ध ही हैं – ‘दो आँखें, दो नासाछिद्र, दो कान, एक मुख’, यह सात छिद्र गले के ऊपर हैं और मल-मूत्र के द्वार, ये दो छिद्र नाभि से नीचे हैं। (दशवाँ द्वार मस्तक की सूक्ष्मता में, तालुमूल के ऊपर है।)
ये सभी छिद्र बाहर की ओर, शरीर की जड़ता में, विषयों की ओर खुले हैं किन्तु शरीर की सूक्ष्मता में लगभग बन्द हैं। इन्हें अन्दर की ओर खोलना ही मन की चैतन्यता को व्यापक और स्वतन्त्र बनाने की चाबी है। स्थूलता, जड़ता, रोगों तथा सभी भयों आदि से पूर्ण मुक्त होने की चाबी है। सभी इन्द्रिय छिद्र एक-दूसरे से जुड़े भी हैं – एक के खुलने का रास्ता प्रशस्त होने से बाकी भी अन्दर खुलने लगते हैं।
1) दो आँखें :- आँखें बन्द करें तो अन्धेरा ही दिखाई देता है अर्थात् आँखें अन्दर की ओर बन्द हैं। बाहर प्राणी देखता है, राग-द्वेष या काम वासना भरी दृष्टि से, क्रोध या मोह भरे मन से; अनजाने ही इन बहिर्मुखी आँखों से राग-द्वेषादि वासनाओं को ही मन में भरता जाता है। आँखें अन्दर खोलने के लिये इन्हें सर्व वासना मुक्त शुभ्र प्रकाशमय तेजोमय input देना होगा। इस input का प्रधान स्रोत हैं सूर्यदेव। साधना का नाम है ‘सूर्य क्रिया योग’। ये साधना पुरातन ऋषि-मुनि सन्ध्या के नाम से करते आये हैं।
प्रारम्भ में पलकों को सहज बन्द रखते हुये मन्त्रों, मुद्राओं, श्वास क्रियाओं, आँखों की क्रियाओं के सहित –आँखों को सूर्यदेव की सीध में 900 के कोण पर बनाये रखते हुये– यह साधना करें। 25-30 मिनट पर्याप्त है। फिर 5-10 मिनट पेट के बल लेटकर सूर्य तेज को मस्तक तथा रीढ़ की हड्डी में हज़म होने दें। इससे आँखें तेजोमयी होकर अन्दर की ओर खुलने लगेंगी। दृष्टि में प्यार और अपनेपन का भाव जागृत होने लगेगा।
2) दो नासा छिद्र :- ये भी अन्दर की ओर बन्द ही हैं। दो-तीन मिनट तो क्या 10-15 सेकण्ड भी श्वास भर कर नाक बन्द कर लें तो श्वास के धक्के बाहर की ओर पड़ने लगते हैं। किन्तु क्रोधावेश में, वासना के वेग में, भागदौड़ में, भोजनादि करते समय, नींद में, श्वास की गति बाहर की ओर विशेष हो जाती है। भय के कारण या रोगों में तो श्वास सामान्य से भी कम हो जाता है। मृत्यु क्षण में तो श्वास बिल्कुल ही अन्दर नहीं जा पाता। ऐसे में ‘संजीवनी क्रिया’ एक ऐसी वैज्ञानिक योग विधि है, जिससे प्राणी भरा-पूरा श्वास लेने में सक्षम होता है। खड़े होकर, लेटकर और बैठकर की जाने वाली तीन-तीन श्वास क्रियाओं का यह एक अद्भुत संगम है। इन्हें करते रहने से दोनों नासा छिद्र सुषुम्ना पथ से सूक्ष्म में खुलने लगते हैं। सुषुम्ना तथा इड़ा-पिंगला धाराओं का सीधा सम्बन्ध मस्तक मण्डल से होने के कारण श्वास वायु बड़े वेग से input के रूप में मस्तक के न्यूरॉनों को आन्दोलित करती है और श्वास धारा का बहिर्मुखी वेग अल्प होने के कारण प्रतिक्रिया कम होती है। फलस्वरूप प्राणी की चेतना सूक्ष्म स्तरों पर अधिक विकसित होने लगती है। इस प्रकार इन्द्रिय छिद्रों से मुक्त हुई चेतना से साधक रोग निरोधक तथा स्वास्थ्य प्रदायिनी जीवनी शक्ति से भरपूर होता जाता है।
3) मुख छिद्र :- यह छिद्र मानव पिण्ड में तो सबसे अधिक खुलता है, किन्तु बाहर की ओर ही। इसका विशेष महत्त्व भी है। बोलना इसी से ही सम्भव है अर्थात् दूसरों से सम्बन्ध जोड़ने का यह मुख्य द्वार है। खाना-पीना, जो जीवन का आधार है, वह भी इसी से ही सम्भव है।
मनपसन्द का भोजन, जरूरत से ज्यादा खाने में जीभ लपलपाती ही रहती है, रस ग्रन्थियाँ बिना भूख के भी मुँह में पानी भर देती हैं; स्वाद वाला, बेशक अभक्ष्य भोजन भी, मुँह के अन्दर को चला जाता है। इसकी यह जीभ निन्दा-चुगली करने में थकती नहीं। क्रोधादि में तो आवाज़ इतनी ऊँची हो जाती है कि सारा शरीर काँपने लगता है लेकिन यदि कहें कि मन ही मन किन्तु ऊँचे स्वरों में भगवन्नामों का उच्चारण करो तो वह सम्भव ही नहीं होता है, शरीर जड़ सा ही बना रहता है। आँख बन्द करके भी ऊँचे स्वरों में बोला नहीं जाता। मुँह बिल्कुल बन्द करके ऊँचे स्वर तो क्या निम्न स्वरों में भी वाणी निकलती नहीं। फिर यदि कोई कहे कि श्वास अन्दर खींचते हुये कुछ बोलो तो प्रायः सम्भव नहीं होता। श्वास रोककर तो आवाज़ बिल्कुल निकलती ही नहीं।
ये सब बातें बतलाती हैं कि मुख छिद्र अन्दर की ओर बन्द है, बाहर की ओर ही विशेष खुला है। बाहर की ओर ही खुले मुख छिद्र से सहज सच्ची और मीठी वाणी का निकलना कठिन है। यदि कोई व्यक्ति सच्ची वाणी बोले भी तो उसमें अहंकार का पुट लगा रहता है, इससे सच्ची वाणी भी कठोरता और अप्रियता के कारण असत्य से मिश्रित होगी।
मुख छिद्र को अन्दर, शरीर की सूक्ष्मता में कैसे खोला जाये? वाणी का मौन धारण करने से तो बात बनने वाली नहीं है। जो साधक इस छिद्र को अन्दर खोलना चाहता है, कपट रहित सत्य वाणी का वक्ता बनना चाहता है तो उसके लिये दो मुख्य साधन हैं – 1. श्वास-श्वास जप, तथा 2. अग्नि क्रिया योग। अन्य सहकारी साधनायें भी हैं।
- 1. श्वास-श्वास जप :- सिद्ध परम्परा सेवित श्वास-श्वास जप में, एक विशेष मन्त्र का, जिह्वामूल से उपांशु या मानसिक जप किया जाता है। आँखों की अन्तर्मुखता तथा श्वास धारा की अन्तर्मुखी गति की विशेष सहकारिता से किया गया यह जप, कण्ठ क्षेत्र को अन्दर और बाहर पूरी तरह से खोलता है।
‘ओम्’ इस आदि शब्द का सविधि दीर्घ उच्चारण अधिकारी विशेष (जिसमें अन्तर्मुख होने की तड़प विशेष है) के लिये खास साधना है। इसमें कण्ठ को केन्द्र करके ओष्ठ तथा तालु प्रदेश तक ‘ओम्’ इस ध्वनि का विस्तार किया जाता है। 1) पहले श्वास छोड़ते हुये बैखरी वाणी में तथा श्वास भरते हुये मानसिक स्तर पर। 2) फिर धीरे-धीरे उच्च तथा दीर्घ स्वरों में बैखरी वाणी पूर्वक, रेचक-पूरक करते हुये। 3) तथा अन्तिम स्तर में जब श्वास अन्दर ही अन्दर गति करता हुआ, सूक्ष्म में लीन होने लगे।
भ्रामरी प्राणायाम भी श्वास-श्वास जप या ओंकार नाद साधना का अंग विशेष है।
ये सभी गुरुमुखी साधनायें हैं। इन्हें अधिक से अधिक सप्तकों में जो कर सकेगा, उतना ही उसका कण्ठ क्षेत्र विकसित होगा; तथा साथ ही ऊपर के बाकी छिद्र तथा निचले दो छिद्र भी स्पन्दित होने शुरू हो जायेंगे। इसी जप साधना की विशेष स्थिति में कण्ठ क्षेत्र इतना विकसित होगा कि जिह्वामूल से जिह्वाग्र तक जिह्वा सर्प की तरह उन्नत होकर दशम द्वार में भी प्रविष्ट होने की शक्ति प्राप्त कर लेती है। यह एक अलौकिक स्थिति है। तब मन, प्राण, इन्द्रिय छिद्रों से पूर्ण मुक्ति ही नहीं प्राप्त होती, विश्वव्यापी भी बन जाते हैं। रोग, भय, शोक, निद्रा-तन्द्रा, जरा-मरण आदि सभी अनिष्टों पर साधक विजय प्राप्त कर लेता है।
जिह्वामूल से ही सीधे उच्चरित हुई वाणी के तीव्र कम्पन सीधे ही मस्तक में प्रविष्ट होते हैं क्योंकि अब वाणी में मुख छिद्र के बाहर की ओर का वेग अल्प हो जाता है। ये कम्पन मस्तक में ही हज़म भी होते जाते हैं क्योंकि बाहर की ओर प्रतिक्रियात्मक वेग इनमें अल्प होता है। इससे प्राणी की चेतना सूक्ष्म स्तरों में अधिक क्रियाशील होती है अथवा ऐसे साधक का चिन्तन इन्द्रिय छिद्रों से मुक्त होकर स्वतन्त्र सा होने लगता है। ऐसे शक्तिशाली चिन्तन से स्थूल शरीर में तनाव रोगादि अप्रिय उपद्रवों से मुक्त होने की शक्ति भी अधिक होगी ही।
सही श्वास-श्वास जप के द्वारा तो श्वास तथा आँखों से भी प्राणों के कम्पन सीधे ही मस्तक में प्रवेश प्राप्त करते हैं और मस्तक को विशेष आन्दोलित करके स्वतन्त्र चिन्तन शक्ति प्रदान करते हैं।
- 2. अग्नि क्रिया योग :- वाणी का देवता अग्नि है अर्थात् मूलाधार से ऊपर उठती अग्नि धारा जब कण्ठ क्षेत्र में स्पन्दित होती है तो बैखरी वाणी की उत्पत्ति होती है। किन्तु कण्ठ क्षेत्र ‘कफ’ (जल तत्त्व) प्रधान होने के कारण, बैखरी वाणी मुख छिद्र से बाहर की ओर ही विशेष गति करती है।
‘अग्नि क्रिया योग’ में कुण्ड में प्रज्वजित अग्नि में विभिन्न मन्त्रों को ‘स्वाहा’, इस दीर्घ उच्चारण से सम्पुटित करके मन की मलिनताओं की आहुति (भावना पूर्वक) दी जाती है। ‘स्वाहा’, ऐसे उच्चारण से अग्नि का कण्ठ क्षेत्र से सीधा सम्बन्ध जुड़ता है और मन्त्र की ध्वनियाँ कफादि दोष तथा मन की मलिनताओं से मुक्त होकर अग्नि शिखा की भाँति ही एक ओर नाभि कुण्ड में तथा दूसरी ओर सीधे ऊपर मस्तक (दिमाग) में प्रवेश करती हैं। यह तेजोमय input, मस्तकस्थ सूक्ष्माणुओं की प्रतिक्रिया रहित हलचलों (output) से प्रायः मुक्त होने के कारण सारे मस्तक में व्याप्ति पूर्वक शुद्ध चिन्तन शक्ति को जागृत करता है। यह चिन्तन इन्द्रियों की पराधीनता से भी मुक्त होगा ही, इसमें संशय नहीं। इसलिये एक तो यह चिन्तन व्यापक (divine) होगा, दूसरी ओर स्थूल शरीर की बहिर्मुखी तथा विषय पराधीन गतिविधियों को नियन्त्रित करने वाले पथ को उन्मुक्त करने वाला भी होगा अर्थात् धीरे-धीरे दशम द्वार को खोलने में सहायक भी होगा।
(4) कान :- दोनों कान भी बाहर की आवाज़ों को ही सुनते हैं। कान बन्द करने से सां-सां की आवाज़ बेशक आये, अन्दर कोई नाद नहीं सुनाई देते। जब ऊपर के पाँचों छिद्र अन्दर को खुलने लगें और मन भी काफी हद तक अन्तर्मुखी होकर भ्रूमध्य के अन्तराकाश में केन्द्रित हो जाये तो सारे मस्तक में कई प्रकार के स्पष्ट नाद जागृत हो जाते हैं; इन्हें अन्तर्मुखी कर्णरन्ध्रों से स्पष्ट सुना जाता है, और ये लगातार चलते रहते हैं। नाद श्रवण से ये नाद, मस्तक ही नहीं कण्ठ क्षेत्र, हृदय क्षेत्र, नाभि क्षेत्र और मूलाधार तक उत्तरोत्तर गतिशील होते हैं। इन्हें कोई अन्तर्मुखी साधक ही सुन सकता है। अब तक निर्मित किसी भी भौतिक यन्त्र की पकड़ में ये नहीं आते क्योंकि ये अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। ये नाद मस्तक के सूक्ष्माणुओं को सूक्ष्म मण्डलों की ओर अनायास ही संचालित करते हैं। मस्तक में हो रही इन सूक्ष्म हलचलों से ऐसी विचारधारा प्रादुर्भूत होती है, जो अत्यन्त व्यापक अर्थात् कार्य-कारण की (analytical thinking) चिन्तन प्रक्रिया से मुक्त होती है। ऐसी विचारधारा स्थूल शरीर में बद्ध चेतना की मुक्ति का साधन बनती है।
(5) निचले दो छिद्र :- ‘गुदा-उपस्थ’, मल-मूत्र निष्कासन के ये दो छिद्र तो बाहर की ओर ही खुले हैं। इनसे शरीर की मलिनताओं से मुक्ति भी मिलती है किन्तु इसके साथ-साथ रज और वीर्य (सूर्य और चन्द्र नाम्नी) दो शक्ति धाराओं को भी ये छिद्र बाह्य गति प्रदान करते हैं। इन छिद्रों के अन्दर की ओर खुलने से हमारा अभिप्राय है, इन दो शक्ति धाराओं की बहिर्गति पूरी थम जायेगी और सुषुम्ना के अग्निपथ में बड़े वेग से इनका ऊर्ध्वगमन होगा। ये ऊर्ध्वगति, मूलाधार से मस्तक के सूक्ष्म मण्डल (आज्ञा चक्र) तक तो होगी ही, अन्ततोगत्त्वा दशम द्वार को भी पूरा खोल देगी। यही लोक प्रसिद्ध कुण्डलिनी शक्ति का जागरण है। सातों ऊपर के छिद्र यदि अन्दर की ओर खुल जायें तो इन छिद्रों में से अवतरित हो रही अन्तर्मुखी मन-प्राण की शक्ति धाराओं के नाभि केन्द्र तक गति होते रहने से ही, निचले छिद्र भी अल्प प्रयास से ही ऊर्ध्वमुखी बन जाते हैं।
मन-प्राण की सम्मिलित चिन्तन शक्ति मयी ये ऊर्ध्वमुखी धारा दशम द्वार से ऊपर उठकर, ऊपर से अवतरित हो रही परमेश्वरी चैतन्यमयी शक्ति से भी योगयुक्त होती है। तब इसमें परमेश्वरी शक्ति भी प्रकाशित होने लगती है। मस्तकीय न्यूरॉनों की हलचलों से तो यह चिन्तन शक्ति दशम द्वार का भेदन करते समय ही मुक्त हो जाती है। अब तो उत्तरोत्तर वह, अखण्ड मण्डलाकार सच्चिदानन्द की सूर्यों के सूर्य सम प्रभा को अपने में अधिकाधिक अवतरित करवाने के गगन पथ पर आरूढ़ है। निम्नवर्ती बुद्धि, मन, प्राण, मस्तक, इन्द्रिय छिद्रों तथा स्थूल शरीर में भी जैसे-जैसे यह दिव्य चेतना अवतरित होती जायेगी, उस साधक का शरीर आनन्द और शक्ति के तीव्र स्पन्दनों को चतुर्दिक प्रवाहित करने का सूर्य सम केन्द्र बन जायेगा।
कोरोना जैसे रोगाणु तथा राग-द्वेषमय मन के मलिन भावों से तो वह तभी मुक्ति कर लेगा जब इन्द्रिय छिद्रों से मन-प्राण थोड़ा-बहुत भी अन्तर्गति करके सुषम्ना के अग्नि पथ में प्रवेश करने लगेंगे।
एक साधक को उपरोक्त सभी साधनाओं को एक साथ ही प्रारम्भ करने की आवश्यकता नहीं; अपनी प्रकृति, उपलब्ध मार्गदर्शन तथा देशकाल की परिस्थिति के अनुसार साधना को चुनें और उसे करते जायें। समय पाकर एक भी साधना से अन्यान्य साधनाओं का प्रादुर्भाव होता जायेगा। अथवा किसी एक साधना को किये बिना भी उसका पूरा फल मिलेगा।
इस लघु लेख में सभी साधनाओं की विशेष जानकारी देना सम्भव नहीं था। विशेष जानकारी के लिये कुण्डाग्नि शिखा पत्रिका या आश्रम की वेबसाईट (www.shabadsuratsangam.org) देखें या फेसबुक पर सूर्य (https://www.facebook.com/Surya-Kriya-Yoga-113609466968385) क्रिया पेज देखें और सूर्य क्रिया ग्रुप (https://www.facebook.com/groups/SSKY.Group) के सदस्य बनें। प्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिल सके तो आप इस महासाधना के पथ पर आरूढ़ भी हो ही सकते हैं।