Shri Maharaj Ji’s new book ‘Kaliyug Sarvasreshtha Hai’ is ready to be read. Now all of us can order the book on Amazon and Flipkart whose links are shared above. Let’s be acquainted with the sadhana associated mysteries related to the present era i.e. ‘Kalyug’ we may progress towards the ultimate goal of this human life.
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- पुराणों तथा महाभारत आदि ऐतिहासिक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर कहा गया है कि कलियुग सर्वश्रेष्ठ है। आखिर क्या है इसका रहस्य?
- कलियुग में प्राणी अल्पवीर्य, अल्पप्राण, अल्पायु होते हैं, जिस कारण तमोगुण की वृद्धि होती है। इनका क्या महत्त्व है, जिससे कि इनके रहते अध्यात्म-साधना में विशेष प्रगति हो?
- आखिर अधर्म प्रधान इस कलियुग से धर्म के युग सत्ययुग का प्रादुर्भाव कैसे होगा?
- आखिर विराट् पुरुष के चार अंगों—ब्राण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में परस्पर तालमेल कैसा हो, जिससे कि सभी का विकास हो?
- क्या मानव के अलावा अन्य योनियों में भी वर्ण-विभाजन होता है? वर्ण-विभाजन का आधार क्या है? वर्ण-संकरता क्या है तथा उसका क्या प्रयोजन है?
बेशक कलियुग में प्राणी अल्पवीर्य, अल्पप्राण, अल्पायु ही हैं। इसीलिए वे सत्यादियुगीय तपोप्रधान, योग-ध्यान-समाधि तथा सर्वात्मभावमयी ज्ञानादि दुष्कर साधनाएँ करने में सीधे ही निपुण नहीं हो पाते। चाहे कोई श्रेष्ठ साधक सत्त्वगुण प्रधान भी हो, तो भी साधना का आधार उसका मानव शरीर तो कलियुगी ही है। प्रधानतया पृथ्वी, जल के जड़ और अधोगामी अणुओं से संरचित होने के कारण उसका शरीर सीधे ही ऊर्ध्व पथ को खोलने में बाधा खड़ी करता ही रहेगा।
किंतु कलियुग की एक अद्भुत विशेषता भी है। जैसे दलदल में थोड़ी यात्रा करने से भी अधिक परिश्रम होता है और शरीर में शीघ्र ही विशेष शक्ति का जागरण होता है; जैसे जितनी बड़ी रुकावट, उतना ही ऊपर उठने का अवसर, वैसे ही अन्यान्य युगों में जो शक्ति-लाभ लंबी-लंबी साधनाएँ करने से होता था, कलियुग में अल्प समय में ही हो सकेगा। यदि यह कहें कि अल्पप्रयास से भी होगा तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
प्रश्न है—कलियुगी शरीर की जड़ता भरी दलदल का रास्ता कैसे तय किया जाए?
इसके लिए साधनाएँ हैं। ये वे साधनाएँ हैं, जो कलियुग की विशेषताएँ भी हैं। इनकी ओर व्यास आदि ऋषियों ने, गुरुओं ने भरपूर संकेत दिए हैं। इन साधनाओं को कोई भी प्राणी सहज व सरलता से कर सकता है। यथा, (क) धन-तन-मन से निष्काम सेवा, (ख) भगवत्-नामों का कीर्तन(सामूहिक या अकेले भी), (ग) गुरु की भक्तिपूर्वक वैखरी जप, क्रिया जप, श्वास जप।
इस प्रकार साधना-अभ्यास से—(क) मन-प्राणों की बहिर्मुखी धाराएँ अनायास ही उलटने लगेंगी। (ख) सहज ही भक्तिभाव का उदय होगा। अल्पवीर्यता, अल्पायु, रोगादि शारीरिक न्यूनताएँ तो भक्तिभाव को पोषित करने में विशेष सहायक होंगी और रुकावट तो कभी बनेंगी ही नहीं। (ग) तब समर्पण का भाव प्रबल होगा (भाव-प्रबलता स्त्रियों की सहज विशेषता है; स्त्रियों में स्वाभाविक सहनशीलता है, वह समर्पण करना जानती हैं); सर्वात्मा परमात्मा के चरणों में देहबद्ध अहंकार (मैं-मैं की बुद्धिमयी अकड़ अर्थात् मैं ‘नर’ (जीव) हूँ) इस अहंकार के समर्पण से कोई भी प्राणी स्वयं को कलियुगी दलदल से पार खड़ा हुआ अनुभव करेगा। (ध्यान रहे एक जीव, शिव-शक्ति या नर-नारी, इन दो धाराओं का सहज मिश्रण है। किसी में नर तथा किसी में नारी-शक्ति की प्रधानता है।)