आई दीवाली
आई दीवाली, दीप सजे और धूम मची चहुं ओर है
ढूंढो-ढूंढो इस प्रकाश में, मन में छिपा जो चोर है।
ब्रह्म वही मर्यादा में बंध, राम बना जग फिरता है
अहंकार के बंधन में बंध, रावण बना विचरता है।
रावण संग चले आसुर सब, काम-क्रोध-मद-लोभ रूप
अवसर देखके घात लगाते, छिप बैठे मन अन्धकूप।
सुरति रूप सीता को हरके, राम मना को भटकाया
विषय-वासना के सागर में, शुभगुण सेना को अटकाया।
माया की ऐसी चकाचौंध, सुग्रीव बुद्धि भी चकराई
हारे मन की सुध लेने, वैराग्य लखन आओ भाई।
जप-तप-संयम हनूमान, आकार बढ़ाते जाना है
तृष्णा रूपी सुरसा के मुख, अब हमने नहीं आना है।
अगन पेट की रावण का छल, कुम्भकर्ण का ये बल है
सूर्यदेव प्रत्यक्ष नारायण, सूर्य क्रिया ही सम्बल है।
मेघनाद इन्द्रिय को छल के, छिपकर पाप कराता है
वहीं विभीषण साधु-संग, इन्द्रियजित हमें बनाता है।
राम-नाम की सतत् श्रृंखला, भव-सागर से तारेगी
ईर्ष्या-द्वेष के झंझावात से, निश्चित हमें उबारेगी।
मुनि अगस्त्य के रूप गुरु, जब शब्द जहाज चढ़ायेंगे
इन्द्रदेव तब ब्रह्मचर्य रथ, सजा-सजा कर लायेंगे।
श्वासों के पथ चले शब्द रथ, अहंकार रावण हारे
गुरु चरणों में शरणागति, आसुर सेना सारी मारे।
राम है मन और सीता सुरति, हनुमान पुरुषारथ है
साधन सेना संयम शस्त्र, लखन कर्म नि:स्वारथ है।
मात-पिता की आज्ञा में रत, बन्धु-सखा से प्रेम गहन
सीता सुरति को अगनि तपाये, राम बने तब ऐसा मन।
अग्नि क्रिया की अग्नि भखे और खेचर रस का पान करे
सब पुर वासी दीप जगा, ऐसे साधक को माथ धरें।
न दुबर्लता न ही वासना, बन्धन न कोई और है
ऐसा साधक महायोग का, जीवन पथ पर सिरमौर है।
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ज्योति पर्व है ज्योति जगायें
ज्योति पर्व है ज्योति जगायें, गहन तिमिर को दूर भगायें ।
घट में, घर में, दुनिया भर में, ज्ञान दीप मालिका सजायें ।।
प्रथम दीप हो प्रभु प्रेम का, हर दिन कुछ पल नित्यनेम का ।
प्रभु दाता भक्ति–मुक्ति का, हर पग हर पल कुशलक्षेम का ।।
दीप दूसरा मात-पिता हित, उनके साथ बितायें समय नित ।
उनके आशीर्वाद बिना, है हार सदा बनकर भी विश्वजित ।।
गुरु-भक्ति है दीप तीसरा, नाम-जहाज का देत आसरा ।
नाम बिना न धनी न ज्ञानी, भव-सागर कभी कोइ न तरा ।।
जब तक दीप ये तीन न जाले, घोर अमावस कैसे टाले ।
माया के इस गहन तिमिर में, तन उजला पर मन हैं काले ।।
दीप पर्व है दीप जगायें, वाणी-व्यवहार की बाती बनायें ।
प्रेम और सद्भाव के घृत में, डुबो-डुबोकर नित्य जलायें ।।
ऐसी बाती ऐसा घृत जब, दीपक सदाचार ही हो तब ।
तन प्रसन्न मन सदा मगन, हो जायें सफल उसके कारज सब ।।
गणपति ऋद्धि-सिद्धि के दाता, वैभवदायिनी लक्ष्मी माता ।
सदाचार दीपक से प्रेरित, उसके घर हर सुख आ जाता ।।
सदाचार का अर्थ यही है, मन में छिपा कोई स्वार्थ नहीं है ।
निज हित, जग हित, सर्व लोक हित, सच पूछो परमार्थ यही है ।
ऐसा दीप जगे जब जग में, भर जाये चहुं ओर उजाले ।
ज्योति रूप बनकर सब प्राणी, ज्योतिर्मय प्रभु को ही पा लें ।।
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मैं लड़ूंगा
नन्हा पौधा वृक्ष से बोला- भद्रे, आप मुझे अपनी छाया में ही रखिये ।
हवाएं बड़ी तेज हैं और धूप बड़ी सख्त, कहीं मैं मुरझा ही न जाऊं ।
आपके सहारे पोषित होकर, कभी मैं भी दूसरों को छाया दे सकूंगा ।
नन्हा परिन्दा अपनी मां से बोला- मां, मुझे अपने डैनों में छिपा लो ।
मुझे बाहर जाने में डर लगता है, मुझे अपने मुख से दाना खिला दो ।
बड़ा होकर फिर किसी दिन मैं भी, आसमान की छाती चीर सकूंगा ।
नन्हा शावक सिंह से बोला- वनराज, मुझे अपने पैरों के बीच खेलने दो ।
गुफा से दूर जाने में मुझे डर लगता है, आप मेरे लिये शिकार ले आओ ।
मैं भी खा-पीकर जल्दी ही बड़ा हो जाऊंगा और फिर जंगल का राजा बनूंगा ।
नन्हा बालक अपने पिता से बोला- तात, मेरी अंगुली पकड़ कर रखना ।
मुझे डर है कहीं रास्ते में गिर न जाऊं, भीड़-भाड़ में बिछड़ कर खो न जाऊं ।
जब तक मैं पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ा न हो जाऊं, आप मेरी पालना करना ।
फिर बड़ा होकर ही मैं आपका सहारा बन सकूंगा ।
किन्तु नन्हा दीपक अस्ताचल को जाते सूर्यदेव से बोला- हे प्रभु, मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दो ।
मैं अभी इसी क्षण प्रतिज्ञा करता हूं आपकी अनुपस्थिति में इस तिमिर से दो-दो हाथ करने की ।
छोटी सी बाती और थोड़े से तेल के सहारे ही अन्धकार के साम्राज्य को नष्ट करने की ।
भले ही आपके लौटने तक मैं टिक न सकूं पर मैं इन्तजार नहीं कर सकता किसी सहारे का,
जबकि यह दुष्ट अन्धकार सम्मुख आकर मेरे प्रकाश रूप को चुनौती दे रहा है ।
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शास्त्रों का स्पष्ट सन्देश है कि हम उस ज्योतिर्मय परमात्मा के ही अंश हैं तो क्यों न इस दीपावली पर हम भी प्रतिज्ञा करें लड़ने की लोभ-मोह-अज्ञान के अंधकार से और उस ज्योति को अपने जीवन में जगाने की । जैसे भी हैं, जहां भी हैं वहां पर पछताने अथवा छटपटाने की बजाये अन्तर में स्थित परमात्मा पर विश्वास रखकर प्रतिज्ञा करें आगे बढ़ने की और अपने सत्स्वरूप में स्थित होने की । हम सच्चिदानन्द परमात्मा के अंश हैं अत: आनन्द पर हमारा सहज अधिकार है। आगे बढ़ें और अपना अधिकार हासिल कर लें।
स्वामी सूर्येन्दु पुरी