किसी गांव में चार अन्धे रहते थे। एक बार उनके गांव में हाथी आया। उन्होंने पहले कभी हाथी देखा न था, इसलिये उन्हें भी उत्सुकता हुई कि चलों देखें यह हाथी क्या चीज है। महावत ने दयावश उन्हें हाथी को छूकर देखने की अनुमति दे दी। उन्होंने उस विशालकाय जीव को स्पर्श के द्वारा जानने की भरपूर कोशिश की, लेकिन नेत्रहीन होने के कारण वह उसके पूर्ण स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सके, बस एक-एक अंग के साथ ही चिपके रहे। बाद में वह सारे एकत्र हुये और अपने अनुभवों की चर्चा करने लगे।

एक ने कहा, ‘आज पता लगा कि हाथी एक बहुत बड़े खम्भे की तरह होता है’ क्योंकि वह हाथी के पैर के साथ चिपटा हुआ था। दूसरा तुरन्त बोला, ‘अरे मूर्ख! हाथी तो एक बड़े ढोल की तरह होता है’, इन महाशय को हाथी के पेट का संज्ञान था। तीसरा कहने लगा, ‘अरे! तुम लोग कहां सो रहे थे, हाथी तो एक बहुत बड़े सूप की तरह होता है’, यह सज्जन हाथी के कान से ही परिचित हुये थे। चौथा कहने लगा, ‘तुम सब तो सचमुच अन्धे हो, अरे हाथी तो एक लचकदार झाड़ू की तरह होता है’ क्योंकि यह जनाब हाथी की पूंछ से लटके हुये थे।

वस्तुत: धर्म भी एक ऐसे ही हाथी की तरह है और हम सब उन अन्धों की तरह, जिसकी पकड़ में जितना आया वह उससे ही चिपक कर बैठ गया। समस्यान तब अधिक बढ़ जाती है जब हम एक अंग को ही पूर्ण मान बैठते हैं और इतना ही नहीं दूसरे को गलत भी कहने लगते हैं। आज पूरे विश्व में यही तो हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को बड़ा और पूर्ण तथा साथ ही दूसरे के धर्म को अधूरा या गलत कहने में ही बड़प्पन का अनुभव करने लगा है। कारण एक ही है कि हम सब वास्तविक धर्म से अनभिज्ञ हैं।

वस्तुत: धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है, स्वभावत: धारण करना। अब तनिक विचार करें कि भला कोई भी व्यक्ति या वस्तु किसको धारण कर सकता है। अग्नि ही अग्नि को धारण कर सकती है, यदि हम लकड़ी को भी अग्नि में डाले तो वह अग्निरूप होकर ही अग्नि के द्वारा धारण की जा सकती है। यह नियम है कि स्व-स्वरूप की ही धारणा सम्भव है तो भला हम सच्चिदानन्द परमात्मा से भिन्न और किसी वस्तु या चिन्ह आदि को पूर्णरूपेण कैसे धारण कर सकते हैं? क्योंकि सभी शास्त्र पुकार रहे हैं, ‘तत्त्वमसि’, ‘मन तू जोतस्वरूप है’, ‘God made man in his own form.’। विभिन्न मत-मतान्तर अथवा मान्यताएं इस परम सत्य को पहचानने के साधन मात्र हैं। यदि हम साधन को ही  साध्यी समझ लेंगे, रास्ते को ही मंजिल समझ लेंगे तो निश्चित ही दुखी होंगे। यही कारण है कि आज के युग में धर्म के नाम पर इतना अधिक प्रचार होने के बावजूद भी दु:ख कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। अपने को अलग अथवा विशेष सिद्ध करने के प्रयास में हम दूसरों से अलग होते जा रहे हैं, अधूरे होते जा रहे हैं।

धर्म की पालना तो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक विधियों से की ही जा सकती है किन्तु फिर भी धर्म तो प्राणी मात्र के लिये एक ही है, वह है अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णरूपेण धारण करना। धर्म हमें परमात्मा से अर्थात् अपनी आत्मा से जोड़ने का साधन हैं न कि तोड़ने और परस्पिर झगड़ने का। धर्म पालन के लिये बाहर के चिन्हों और मान्यताओं से अधिक आवश्यक है अपने अन्दर परमात्मा की धारणा और उससे योग। शुभस्य शीघ्रम्।

प्रभु चरण चंचरीक – स्वामी सूर्येन्दु पुरी