वर्तमान युग एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। एक ओर भौतिकतावाद अपनी चरम सीमा पर है तो दूसरी ओर अध्याउत्मम के क्षेत्र में भी उतनी ही तीव्रता से खोज-बीन चल रही है। लेकिन आम आदमी इन दो ध्रुवों के बीच भटक रहा है। दुनिया बहुत रंगीन दिखती है लेकिन उसमें पूरा सुख नहीं मिलता और जिस परमात्मा को सच्चिदानन्द बताया गया है उसका पता ही नहीं चलता। लोगों ने तो परमात्मा के अस्तित्व तक पर संदेह करना प्रारम्भ कर दिया है। कुछ ही समय पहले अखबारों में छपा था, वैज्ञानिकों ने अपनी खोजों के आधार पर बताया है कि चन्द्रमा की उत्पत्ति का कारण था मंगल के साथ एक विशालकाय पिण्ड का अनायास और आकस्मिक टकराव। अब कोई उन पढ़े-लिखे लोगों से यह पूछे कि यदि चांद या पृथ्वी की उत्पत्ति का कारण कोई दुर्घटना थी तो उनकी सुव्यवस्थित गति और दिशा का क्या कारण बतायेंगे? और अगर यह मान भी लें कि यह सृष्टि अनायास ही उत्पन्न हो गयी तो भी इसकी उत्पत्ति का आधार पिण्ड कहां से आया?
ऐसे ही एक बुद्धिजीवी की कथा याद आती है। एक व्यक्ति बहुत पढ़ा-लिखा और समझदार था। समाज में उसका बड़ा नाम था और धन-मान की कहीं कोई कमी नहीं थी। निश्चित ही उसने कठिन पुरुषार्थ के बल पर यह स्थान प्राप्त किया था। लेकिन इस कठिन यात्रा में चलते-चलते उसका हृदय भी कठोर हो गया। उसने परमात्मा पर विश्वास करना ही छोड़ दिया। वह यही मानता था कि जैसे जल का स्वभाव है गीला करना, अग्नि का स्वभाव है जलन करना उसी प्रकार यह जीवन तो एक स्वाभाविक घटना है। इसके लिये किसी भगवान आदि को मानने की क्या आवश्यकता है। जब तक जीवन है हमें कर्म करते रहना है और एक दिन कहानी खत्म।
किन्तु जैसा परमात्मा का विधान है कि तमोगुणी आलस और प्रमाद से निकलकर जब व्यक्ति पुरुषार्थ के द्वारा रजोगुण की वृद्धि करता है तो परमात्मा उसके लिये सत्वगुण में प्रवेश का द्वार भी खोल देते हैं। उस व्यक्ति का एक छोटा बालक था जो परमात्मा पर बड़ा विश्वास करता था। उस बालक का अपने पिता से बड़ा स्नेह था क्योंकि उसके पिता सचमुच एक आदर्श व्यक्ति थे। लेकिन फिर भी उसे इस बात का दु:ख था कि उसके पिता भगवान के अस्तित्व पर संदेह करते हैं। एक दिन उसने एक युक्ति निकाली। जब उसके पिता काम पर गये हुये थे तो उसने एक बहुत ही सुन्दर सा चित्र बनाया। तरह-तरह के रंगों का प्रयोग करके उसे बहुत ही आकर्षक बनाया और फिर उसे अपने पिता के कमरे में एक मेज पर रखकर पंखा चला दिया और कमरे की खिड़की खोल दी।
शाम को जब पिता वापस आये तो वह सुन्दर चित्र देखकर बड़े ही प्रसन्न हुये। पूछने लगे यह चित्र किसने बनाया। बालक ने बड़े भोलेपन से कहा, ‘पिताजी! आज तो मैंने एक बड़ा ही चमत्कार देखा। मैं यहां बैठा अपनी पढ़ाई कर रहा था कि अचानक बड़ी जोरों से हवा चलने लगी और सामने की दुकान से एक कागज आकर यहां मेज पर बैठ गया। फिर हवा के धक्के से यह रंगों की शीशियां भी कुछ इस तरह से गिर पड़ी कि उनका रंग कागज पर बिखर गया। बाद में जब मैंने देखा तो कागज पर यह सुन्दर सा चित्र बना हुआ था।’ पिता ने पहले तो उसे हंसकर टाल दिया और सच बात बताने को कहा, लेकिन जब वह बार-बार वही बात दुहराने लगा तो बड़े ही गुस्से से कहने लगे, ‘यह कैसी मूर्खता वाली बातें कर रहे हो। भला यह कैसे सम्भव है कि इतना सुन्दर चित्र अपने आप बन जाये। बिना किसी के निर्देशन के इतना सुन्दर रंगों का चुनाव और संयोजन कैसे सम्भव है?’
बेटे को मौका मिल गया। बोला, ‘पिताजी! यही तो मैं भी कहता हूं। इतनी सुन्दर और सुव्यवस्थित दुनिया भला अपने आप कैसे बन सकती है। कोई तो है जिसने इसे बनाया और जो स्वयं अपने निर्देशन में इसे चला रहा है और उसे ही तो भगवान कहते हैं। उसे अस्वीकार करके या उसे भूलकर या मत-मतान्तरों के दायरों में बांधकर तो हम केवल दु:ख और कठिनाई को ही निमन्त्रण दे रहे हैं। यदि हम उसमें प्यार और विश्वास कर लें तो स्वाभाविक ही उसकी सृष्टि से प्यार करना सरल हो जायेगा और तब सभी दूरियां और मतभेद मिट जायेंगे। वह ही समस्त ज्ञान, शक्ति, सुख, शान्ति का आधार है अत: उससे जुड़कर उन सबकी प्राप्ति सहज सम्भव है।’ पिता की समझ में बात आ गई और उन्होंने बड़े ही प्यार से बालक को गले लगा लिया। लेकिन हमारे छोटे से दिमाग में क्या यह बात अब तक आ पायी है? शुभस्य शीघ्रम्।
प्रभु चरण चंचरीक – स्वामी सूर्येन्दु पुरी